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________________ ६१२ प्रमेयकमलमार्तण्डे ज्योपेक्षणात्तस्यैव पराजयः स्यात् । नन्वेवमुत्तराभासस्योत्तरपक्षवादिनोपन्यासेपि अपरस्योद्भावनशक्त्यशक्त्यपेक्षया जयपराजयव्यवस्थायामनवस्था स्यात् । न खलु जातिवादिवदस्यापि तूष्णींभाव: सम्भवति, सम्यगुत्तराप्रतिपत्तावपि उत्तराभासस्योपन्याससम्भवात् । ततश्चोपन्यस्त जातिस्वरूपस्यतोऽन्यस्य चोद्भावनेपि उत्तरपक्षवादिनस्तत्परिहारे शक्तिमशक्ति चापेक्ष्यैव पूर्वपक्षवादिनो जयः पराजयो वा व्यवस्थाप्येत जातिवादिन इवेतरस्योद्भावनशक्त्यशक्त्यपेक्ष इति । जाति लक्षणासदुत्तरप्रयोगादेव तत्परिहाराशक्तिनिश्चयात् पुनरुपन्यासवैफल्ये सत्साधनाभिधानादेवोत्तराभासत्वोद्भावनशक्तरप्यवसायाद् इतरस्यापि कथं तद्वै फल्यं न स्यात् ? सत्साधनाभिधानात्तदभिधानसामर्थ्यमेवास्यावसीयते न ने जाति का प्रयोग किया है" इसप्रकार के प्रश्न की उपेक्षा कर देने के कारण वादी का ही पराजय होवेगा। जैन-प्रतिवादी द्वारा उत्तराभास [असत् उत्तर] स्वरूप जाति के करने पर भी यदि वादी उस दोष को प्रकाशित करने की शक्ति रखता है तो जय और उक्त शक्ति नहीं रखता तो पराजय इसतरह की जय पराजय की व्यवस्था करने पर तो अनवस्था होगी । जाति को कहने वाले प्रतिवादी के समान बादी भी मौन रह सकता है, तथा बादी सम्यक् उत्तर को नहीं जाने तो उत्तराभास असत्व उत्तर को भी दे सकता है। तिस कारण से अन्य के उपस्थित किये गये जाति स्वरूप का उद्धावन करने पर भी प्राश्निकजन प्रतिवादी द्वारा उसका परिहार किये जाने की शक्ति है या नहीं है इसप्रकार की अपेक्षा लेकर हो वादी के जय या पराजय की व्यवस्था कर सकेंगे ? क्योंकि जैसे पहले जाति का प्रयोग करने वाले प्रतिवादी की शक्ति अथवा अशक्ति देखी गयी थी वैसे वादी के भी उक्त दोष को प्रगट करने की शक्ति या अशक्ति अपेक्षित होगी ही। यदि कहा जाय कि प्रतिवादी द्वारा जाति लक्षण स्वरूप असत् उत्तर के प्रयोग से ही निश्चित होता है कि प्रतिवादी में वादो का परिहार अथवा वादी द्वारा प्रयक्त हेतु का परिहार करने की शक्ति नहीं है, अत: वादी द्वारा पुनः असत् उत्तररूप जाति प्रयोग करना व्यर्थ है ? तो फिर वादी द्वारा वास्तविक हेतु के करने से ही निश्चित होता है कि यह वादी प्रतिवादी के असत् उत्तर रूप दोष को प्रकाशित कर सकता है, इसतरह उसके शक्ति का निश्चय होने से प्रतिवादी का जाति प्रयोग किस प्रकार निष्फल या व्यर्थ नहीं होगा ? अवश्य ही होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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