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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे साधने प्रयुक्त परः प्रत्यवतिष्ठते-'शाखादिभङ्गजे शब्दे प्रयत्नानन्त रीयकत्वाभावेप्यनित्यत्वमस्ति' इति । दूषणाभासत्वं चास्याः; प्रकृतसाधनाप्रतिबन्धित्वात् । न खलु 'साधनमन्तरेण साध्यं न भवति इति' नियमोस्ति, साधनस्यैव साध्याभावेऽभावनियमव्यवस्थितेः । न चानित्यत्वे प्रयत्नानन्तरीयकत्वमेव गमकम् ; उत्पत्तिमत्त्वादेरपि तद्गमकत्वात् । "तदनुपलब्धेरनुपलम्भादभावसिद्धौ तद्विपरीतोपपत्त र नुपलब्धिसमा जाति: ।" [ न्यायसू० ५।१।२६ ] 'यथा विद्यमान: शब्द उच्चारणात्पूर्वमनुपलब्धेरुत्पत्तेः पूर्वं घटादिवत् । न खलूच्चारणा होने पर प्रतिवादी कहता है-शाखा आदि के टूट जाने से प्रादुर्भूत हुए शब्द में प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु का प्रभाव है फिर भी अनित्यत्व है, अर्थात् प्रयत्न के अनन्तर उत्पन्न होने से शब्द अनित्य है ऐसा वादी ने कहा किन्तु शाखा टूट जाने से जो शब्द होता है उसमें प्रयत्न के अनन्तर होना रूप स्वभाव नहीं, अतः आपका साध्य जो अनित्यत्व है वह हेतु जो प्रयत्नानंतरीयकत्व है उसके अभाव में भी पाया गया। इस प्रकार यह निर्दिष्ट किये गये कारण [ हेतु ] के अभाव में भी साध्य उपलब्ध होना उपलब्धिसमा जाति दोष है। __यह भी दूषणाभासरूप है क्योंकि इसप्रकार का दूषण प्रकृत हेतु का प्रतिबंधक नहीं होता । हेतु के बिना साध्य नहीं होता हो ऐसा नियम नहीं है अपितु साध्य के बिना हेतु नहीं होता ऐसा नियम है । यथा यह भी बात है कि केवल प्रयत्नानंतरीयकत्व ही अनित्यपने का गमक नहीं है ? अनित्य का गमक तो उत्पत्तिमत्व आदि भी हुआ करते हैं। __ अनुपलब्धिसमा जाति-शब्द की अनुपलब्धि के समय अर्थात् उच्चारण के पहले अनुपलंभ रहने से उस शब्द का अभाव वादी द्वारा सिद्ध करने पर प्रतिवादी उससे विपरीत भाव को उत्पत्ति दिखाता है वह अनुपलब्धिसमा जाति है। जैसे शब्द अविद्यमान है [ शब्द का अस्तित्व नहीं है ] क्योंकि उच्चारण करने के पहले वह अनुपलब्ध रहता है [ उपलब्ध नहीं होता ] जैसे कि घट उत्पत्ति के पहले अनुपलब्ध रहता है। यहां कोई कहे कि उच्चारण के पहले शब्द विद्यमान है किन्तु उस पर प्रावरण रहने से पहले उपलब्ध नहीं होता । सो यह कथन असत् है। उस शब्द को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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