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जय-पराजयव्यवस्था
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तस्याश्च दूषणाभासता; तथा साधयितुमशक्यत्वात् । न खलु यथा प्रयत्नानन्तरीयकत्वं साधनधर्मः साध्यमनित्यत्वं शब्दे साधयति तथा सर्वार्थे सत्त्वम्, धर्मान्तरस्यापि नित्यत्वस्याकाशादौ सत्त्वे सत्युपलम्भात्, प्रयत्नानन्तरीयकत्वे च सत्यनित्यत्वस्यैवोपलम्भादिति ।
__ "उभयकारणोपपत्त रुपपत्तिसमा जातिः।" [ न्यायसू०५।१।२५ ] यथात्रैव साधने प्रयुक्त परः प्राह-'यद्यनित्यत्वे कारणं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं शब्दस्यास्तीत्यनित्योसौ तदा नित्यत्वेप्यस्य कारणमस्पर्शवत्त्वमस्तीति नित्योप्यस्तु' इत्युभयस्य नित्यत्वस्यानित्यत्वस्य च कारणोपपत्या प्रत्यवस्थानमुपपत्तिसमो दूषणाभासा । एवं ब्रुवता स्वयमेवानित्यत्वकारणं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं तावदभ्युपगतम् । एवं तदभ्युपगमाच्चानुपपन्नस्तत्प्रतिषेध इति ।
"निर्दिष्टकारणाभावेप्युपलम्भादुपलब्धिसमा जाति: ।" [ न्यायसू० ५।१।२७ ] यथात्रैव
___ यह भी केवल दूषणाभास है, क्योंकि उक्त प्रकार से सब में अनित्यत्व साधना अशक्य है। जैसे प्रयत्न के अनन्तर उत्पन्न होना रूप साधन धर्म शब्द में अनित्यरूप साध्य को सिद्ध करता है वैसे सत्वधर्म सभी पदार्थों में अनित्यत्व सिद्ध नहीं करता, क्योंकि आकाश आदि में नित्यरूप धर्मान्तर भी सत्त्व के होने पर उसी के साथ उपलब्ध है, किन्तु प्रयत्नानन्तरीयकत्व ऐसा नहीं है वह केवल अनित्यधर्म की उपलब्धि में ही होता है। अतः प्रविशेष का प्रसंग लाकर अविशेषसमा जाति उपस्थित करना प्रसिद्ध है।
उपपत्तिसमा जाति-उभयकारण की उपपत्ति होने से उपपत्तिसमा जाति दिखायी जाती है। जैसे उसी अनुमान के प्रयुक्त होने पर प्रतिवादी कहता है-यदि मनित्यपन का कारण प्रयत्नानंतरीयकत्व शब्द में है अतः उसे अनित्य स्वीकार किया जाता है तो नित्यपन का कारण जो अस्पर्शवत्व है वह शब्द में है अतः उसे नित्य भी स्वीकार करना चाहिए। इसप्रकार नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों के कारणों के उपपत्ति दिखाकर उलाहना देना उपपत्तिसमा जाति है । किन्तु यह दूषणाभास है । इस प्रकार से दोष उपस्थित करने वाले प्रतिवादी ने तो प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु को अनित्यपने का कारण स्वीकार कर ही लिया, और ऐसा स्वीकृत होने पर पुनः उसी का निराकरण शक्य नहीं है।
उपलब्धिसमा जाति-निर्दिष्ट कारण के अभाव में भी उपलब्धि दिखाना उपलब्धिसमा जाति है। जैसे प्रयत्नानंतरोयकत्व हेतु द्वारा शब्द में अनित्यत्व सिद्ध
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