________________
६०२
प्रमेयकमलमार्तण्डे नित्योस्तु । यथैव ह्यस्पर्शवत्त्वं खे नित्ये दृष्ट तथा शब्देपि' इति ।
अस्याश्च दूषणाभासत्वम् ; सुखादिनानकान्तिकस्वात् । नचानकान्तिकाद्ध तो: प्रतिपक्षसिद्धिरिति ।
"एकधर्मोपपत्तेरविशेषे सर्वाविशेषप्रसङ्गात् सत्त्वोपपत्तितोऽविशेषसमा जातिः।" [न्यायसू० ५।११२३ ] यथात्रैव साधने प्रयुक्त पर प्रत्यवतिष्ठते-प्रयत्नानन्तरीयकत्वलक्षणकधर्मोपपत्तेर्घटशब्दयोरनित्यत्वाविशेषे सत्त्वधर्मस्याप्य खिलार्थेषूपपत्ते रनित्यत्वाविशेषः स्यात् ।
अाकाश के साथ समानता होने से नित्यत्व सिद्ध होवे । देखा भी जाता है कि जैसे अस्पर्शवान्पना नित्य आकाश में है वैसा अस्पर्शवत्व शब्द में भी है ।
यह अर्थापत्तिसमा जाति भी सही दूषण नहीं केवल दूषणाभास है। इसीको बतलाते हैं-प्रयत्न के अनन्तर उत्पत्तिमान् होने से शब्द अनित्य है ऐसे वादी के कथन में अर्थापत्ति से नित्य आकाश के साधर्म्य से शब्द को नित्य बताना तो सुखादि के साथ व्यभिचरित होता है, क्योंकि सुखादि अस्पर्शवान् होकर भी अनित्य है। अतः इसतरह के अनैकान्तिक हेतु से प्रतिवादी के प्रतिपक्ष की सिद्धि कथमपि संभव नहीं है।
अविशेष समा जाति-एक धर्म [ प्रयत्नानंतर उत्पत्तिमत्व ] को उपपत्ति [शब्द में, घट में] अविशेष होने पर अर्थात् प्रयत्नानन्तर उत्पत्तिमत्व हेतु द्वारा शब्द और घट दृष्टांत में अनित्यत्व स्वीकृत होने पर वह धर्म अविशेष कहलाता है, इस पर पुनः प्रतिवादी कहता है कि सब वस्तुओं में सत्त्वधर्म घटित होने से घटादि की तरह अनित्यपना सिद्ध हो जानो, इसतरह सब में अनित्यपने का प्रसंग अविशेषरूप से उपस्थित करना अविशेषसमा जाति है। जैसे वादी ने अनुमान प्रयुक्त किया कि शब्द अनित्य है प्रयत्न के अनन्तर उत्पन्न होने से घट की तरह । पुनः प्रतिवादी इसका निराकरण करता है कि प्रयत्नानंतरीयकत्वरूप एक ही धर्म द्वारा घट और शब्द में अनित्यपमा समानरूप से स्वीकार करने पर तो सत्वधर्म संपूर्ण पदार्थों में उपलब्ध होने से उनमें अनित्यत्व समानरूप से स्वीकार करना पड़ेगा इत्यादि । इसप्रकार प्रतिवादी का दोष उठाना अविशेषसमा जाति है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org