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________________ जय-पराजयव्यवस्था ६०१ "त्रैकाल्यासिद्ध तोरहेतुसमा जातिः।" [ न्यायसू० ५।१।१८ ] यथा सत्साधने दूषणमपश्यन्परः प्राह-'साध्यात्पूर्व वा साधनम्, उत्तरं वा, सहभावि वा स्यात् ? न तावत्पूर्वम् ; असत्यर्थे तस्य साधनत्वानुपपत्तेः। नाप्युत्तरम् ; असति साधने पूर्व साध्यस्य साध्यस्वरूपत्वासम्भवात् । नापि सहभावि ; स्वतन्त्रतया प्रसिद्धयोः साध्य साधनभावासम्भवात्स ह्यविन्ध्यवत्' इत्यहेतुसमत्वेन प्रत्यवस्थानमयुक्तम् ; हेतोः प्रत्यक्षतो धूमादेवन्ह्यादौ प्रसिद्ध रिति । "अर्थापत्तित: प्रतिपक्षसिद्ध रर्थापत्तिसमा जातिः ।" [ न्यायसू० ५।१।२१ ] यथात्रैव साधने प्रयुक्त परः प्राह-'यदि प्रयत्नानन्तरीयकत्वेनानित्य: शब्दो घटवत्तदार्थापत्तितो नित्याकाशसाधा का प्रतिषेध करना नियम से विरुद्ध पड़ता है। और प्रतिपक्ष के निषेध की सिद्धि हो चकने पर तो प्रतिपक्ष की प्रक्रिया साधने का व्याघात होता है । इसतरह दोनों [ पक्ष विपक्ष ] में प्रक्रिया समान कहां रही ? जिससे प्रकरणसमा जाति नामा दोष दिया जाय ? अहेतुसमा जाति-साध्य सिद्धि के लिये प्रयुक्त हुए हेतु का तीनों कालों में वर्त्तना नहीं बनने से दोष उठाना अहेतुसमा जाति है । वादी के वास्तविक हेतु में कोई दोष न देखकर प्रतिवादी व्यर्थ ही कह बैठता है कि यह आपका हेतु साध्य के पहले विद्यमान रहता है या उत्तरकाल में अथवा साध्य का सहभावि है ? साध्य के पहले तो विद्यमान नहीं हो सकता, क्योंकि उसका साध्यभूत अर्थ ही नहीं अतः साधन (हेतु) नहीं कहला सकता। साध्य के उत्तरकाल भावी हेतु का होना भी प्रयुक्त है, क्योंकि जब साधन असत् था उस पूर्वकाल में साध्य का साध्यस्वरूप असम्भव है। सहभावि भी नहीं हो सकता, जब स्वतंत्ररूप से दोनों प्रसिद्ध हैं तो उनमें साध्य-साधनभाव असम्भव ही है, जैसे कि सध्य और विंध्य में साध्य-साधनभाव असम्भव है। जातिवादी के इस अहेतूसमा जाति द्वारा दोष देना सर्वथा प्रयुक्त है, क्योंकि हेतु की प्रसिद्धि तो प्रत्यक्षप्रमाण से है, जैसे कि अग्नि आदि साध्य में धूमादि हेतु प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध है। अर्थापत्तिसमा जाति-अर्थापत्ति से प्रतिपक्ष सिद्ध होना अर्थापत्तिसमा जाति है । जैसे इसी पूर्वोक्त अनुमान के प्रयुक्त होने पर प्रतिवादी कहता है-यदि प्रयत्न के अनन्तर उत्पन्न होने से शब्द अनित्य है जैसे घट है, तो अपत्ति से इस शब्द में नित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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