SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 648
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जय-पराजयव्यवस्था ६०५ प्राग्विद्यमानस्य शब्दस्यानुपलब्धिः तदावरणानुपलब्धेः, उत्पत्त: प्राग्घटादेरिव । यस्य तु दर्शनात् प्राग्विद्यमानस्यानुपलब्धिस्तस्य नावरणानुपलब्धिः, यथा भूम्याद्यावृतस्योदकादेः, प्रावरणानुपलब्धिश्च श्रवणात्प्राक् शब्दस्य ।' इत्युक्त परः प्राह-तस्य शब्दस्यानुपलब्धेरप्यनुपलम्भादभावसिद्धो सत्यां शब्दस्याभावविपरीतत्वेन भावस्योपपत्तेरनुपलब्धिसमा जातिः । अस्याश्च दूषणाभासत्वम् ; अनुपलब्धेरनुपलब्धिस्वभावतयोपलब्धिविषयत्वात् । यथैव ह्य पलब्धिरुपलब्धेविषयस्तथानुपलब्धिरपि । कथमन्यथा 'अस्ति मे घटोपलब्धि: तदनुपलब्धिस्तु नास्ति' इति संवेदनमुपपद्यते ? | "साधात्तुल्य धर्मोपपत्त: सर्वानित्यत्वप्रसङ्गादनित्यसमा जाति: ।” [न्यायसू० ५।१।३३] प्रावृत्त करने वाले प्रावरण की अनुपलब्धि है, अर्थात् शब्द का प्रावरण असिद्ध है, इसलिये शब्द विद्यमान है केवल उच्चारण के पूर्व अनुपलब्ध है ऐसा कहना नहीं बनता । जिस विद्यमान वस्तु की देखने के पूर्व अनुपलब्धि होती है उसके आवरण की अनुपलब्धि नहीं हुआ करती, अर्थात् उसका प्रावरण उपलब्ध ही होता है, जैसे भूमि आदि से आवृत्त जल आदि है तो जल के देखने के पूर्व उसके प्रावरणस्वरूप भूमि आदि उपलब्ध ही रहते हैं, अनुपलब्ध नहीं। किंतु शब्द के प्रावरण की तो सुनने के पूर्व अनुपलब्धि ही रहती है । इसप्रकार वादी के कह चुकने पर प्रतिवादी उसमें दूषण उठाते हुए कहता है कि शब्द के अनुपलब्धि की भी अनुपलब्धि है अतः उस अनुपलब्धि का तो अभाव सिद्ध होता है और इसतरह अनुपलब्धि की अनुपलब्धि होने से शब्द के प्रभाव का विपरीत धर्म जो भाव [ सद्भाव ] है उसकी सिद्धि होती है । इसप्रकार अनुपलब्धिसमा जाति का उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है । ___ उपर्युक्त जाति भी दूषणाभास है, क्योंकि अनुपलब्धि की अनुपलब्धि स्वभाव से उपलब्धि हुअा ही करती है अर्थात् अनुपलब्धि तो अनुपलब्धि स्वभाव का विषय है वह उस रूप से प्रतीत होती ही है, जैसे कि उपलब्धि का विषय उपलब्धि है । अन्यथा मेरे को घटकी उपलब्धि है उसकी अनुपलब्धि तो नहीं है इसतरह का संवेदन कैसा होता है ? अनित्यसमा जाति-साधर्म्य से तुल्य धर्म की प्राप्ति अर्थात् अनित्यत्व की प्राप्ति होने से सबको अनित्यपने का प्रसंग दिखाना अनित्यसमा जाति है। जैसे शब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy