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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे स चायुक्तः; अस्य दूषणाभासत्वात् । तथाहि-यदि तावदयं ब्रूते-'यथायं त्वदीयो दृष्टान्तो लोष्टादिस्तथा मदीयोप्याकाशादिः' इति, तदा व्याघात:-एकस्य हि दृष्टान्तत्वेन्यस्यादृष्टान्तत्वमेव, उभयोस्तु दृष्टान्तत्वविरोधः । अथैवं ब्रूते यथायं मदीयो न दृष्टान्तस्तथा त्वदीयोपि इति' । तथापि व्याघात:-प्रतिदृष्टान्तस्य ह्यदृष्टान्तत्वे दृष्टान्तस्यादृष्टान्तत्वव्याघातः, प्रतिदृष्टान्ताभावे तस्य दृष्टान्तस्वोपपत्त: । दृष्टान्तस्य वाऽदृष्टान्तत्वे प्रतिदृष्टान्तस्यादृष्टान्तत्वव्याघातः, दृष्टान्ताभावे तस्य तत्त्वोपपत्त रिति । ___"प्रागुत्पत्त: कारणाभावाद्या प्रत्यवस्थितिः सानुत्पत्तिसमा जाति:" [ न्यायसू० ५।१।१२ ] तद्यथा-'विनश्वरः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्कटकादिवत्' इत्युक्त परः प्राह-'प्रागुत्पत्ते रनुत्पन्न शब्दे विनश्वरत्वस्य यत्कारणं प्रयत्नानन्तरीयकत्वं तन्नास्ति ततोयमविनश्वर :, शाश्वतस्य च शब्दस्य न प्रयत्नानन्तरं जन्म इति । प्रतिवादी यदि इसप्रकार कहता है कि जैसा यह मेरा दृष्टांत नहीं वैसा तेरा भी नहीं है । ऐसे भी व्याघात दोष होगा, प्रतिवादी के प्रतिकूलदृष्टांत में अदृष्टांतत्व स्वीकार किया जाय तो वादी के दृष्टांत में अदृष्टांतत्व का निराकरण स्वतः ही होगा, क्योंकि प्रतिदृष्टांत के अभाव में उसके सुलभता से दृष्टांतत्व घटित होता है । अथवा वादी के दृष्टांत में अदृष्टांतत्व स्वीकारा जाय तो प्रतिवादी के प्रतिदृष्टांत में अदष्टांतत्व दोष समाप्त होगा अर्थात् प्रतिदष्टांत सत्य होगा, और इसतरह वादी के दृष्टांत का अदृष्टांतपना होने से प्रभाव होने पर उक्त प्रतिवादी का तत्व सिद्ध होगा। भावार्थ यही हुअा कि प्रतिदृष्टांत समा नामका जातिदोष उठाना व्यर्थ है, इस दोष द्वारा जय पराजय नहीं होता न किसी के पक्षका निराकरण ही यह तो केवल दूषणाभास है। अनुत्पत्तिसमा जाति-उत्पत्ति के पहले कारण के अभाव से जो दोष उपस्थित किया जाता है वह अनुत्पत्तिसमा जाति है। वह इसप्रकार-शब्द नश्वर है मनुष्य के प्रयत्न द्वारा अव्यवहित उत्तरकाल में उत्पत्ति वाला होने से जैसा कटक-कड़ा आदि है, इसतरह वादी द्वारा अनुमान प्रयुक्त होनेपर प्रतिवादी कहता है-उत्पत्ति के पहले अनुत्पन्नरूप शब्द में नश्वरता का हेतु जो आपने प्रयत्न के अनन्तर होना [ प्रयत्न के उत्तरकाल में होना ] बताया है वह नहीं है, इसलिये यह शब्द तो अविनश्वर है । इसतरह अनुत्पन्न शब्द में नश्वरता नहीं होने से वह शाश्वत होगा और उस शाश्वत शब्द की पुनः प्रयत्न के उत्तरकाल में उत्पत्ति नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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