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जय-पराजयव्यवस्था
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सेयमनुत्पत्त्या प्रत्यवस्था दूषणाभासो न्यायातिलंघनात् । उत्पन्नस्यैव हि शब्दस्य धर्मिण: प्रयत्नानन्तरीयकत्वमुत्पत्तिधर्मकत्वं वा भवति नानुत्पन्नस्य । प्रागुत्पत्त: शब्दस्याऽसत्त्वे किमाश्रयोयमुपालम्भः ? न ह्ययमनुत्पन्नोऽसन्न व 'शब्दः' इति 'प्रयत्नानन्तरीयकः' इति 'प्रनित्यः' इति वा व्यपदेष्टु शक्यः। सत्त्वे तु सिद्धमेव प्रयत्नानन्तरीयकत्वकारणं नश्वरत्वे साध्ये, अतः कथमस्य प्रतिषेध इति?
"सामान्यघटयोरैन्द्रियिकत्वे समाने नित्यानित्यसाधात्संशयसमा जातिः।" [ न्यायसू० ५।१।१४] यथा 'अनित्यः शब्द : प्रयत्नानन्तरीयकत्वाद् घटवत्' इत्युक्त पर: सददूषणमपश्यन् संशयेन प्रत्यवतिष्ठते-प्रयत्नानन्तरीय केपि शब्दे सामान्येन साधर्म्यमन्द्रियिकत्वं नित्येनास्ति घटेन चानित्येनास्ति, संशयः शब्दे नित्यत्वानित्यत्वधर्मयोरिति ।
यह अनुत्पत्ति द्वारा प्रतिवादी का दोष देना दोषाभास मात्र है इसमें न्याय मार्ग का उल्लंघन होता है । उत्पन्न हो चुके शब्द को ही पक्ष बनाया जाता है और उसका प्रयत्न के उत्तरकाल में होना या उत्पत्ति धर्मपना होना सिद्ध किया जाता है । अनुत्पन्न शब्द को पक्ष बताया ही नहीं जाता और न उसके प्रयत्न के अनन्तर होना रूप धर्म सिद्ध किया जाता है । जब उत्पत्ति के पहले शब्दका असत्व हो है तब किसका आश्रय लेकर प्रतिवादी उलाहना देगा ? अनुत्पन्न होने से असत्वरूप इस शब्द को 'यह शब्द है' "अथवा प्रयत्न के अनन्तर होने वाला है" 'या अनित्य है' इत्यादि कथन करना किसतरह शक्य है ? और जब उस शब्द का सत्त्व हो जाता है तब प्रयत्न के उत्तरकाल में होनारूप हेतु नश्वत्व साध्य को सिद्ध ही कर देता है फिर इस हेतु का प्रतिषेध किसप्रकार होगा ? अर्थात् नहीं हो सकता।
संशयसमाजाति-पर अपर सामान्य और घट इनमें इन्द्रिय द्वारा ग्राह्यपना समानरूप से सिद्ध होने पर नित्यत्व अनित्यत्व के साधर्म्य से संशयद्वारा दोष देना संशयसमाजाति है । जैसे शब्द अनित्य है प्रयत्न के अनन्तर उत्पन्न होने से, घट के समान इसप्रकार वादीद्वारा अनुमान देने पर प्रतिवादी इसमें वास्तविक दोष का अभाव देख संशय द्वारा उलाहना देता है कि प्रयत्न के अनन्तर उत्पन्न होनेपर भी शब्द में नित्यस्वरूप सामान्य पदार्थ के साथ इन्द्रियग्राह्य होनारूप समानता है, तथा अनित्यस्वरूप घट के साथ भी प्रयत्न के अनन्तर उत्पन्न होनारूप समानता है, इस कारगा शब्द में नित्यपन और अनित्यपन धर्मों का संशय रहता है ।
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