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________________ २१ ‘व्यक्त्यन्तरालेऽस्ति सामान्यं युगपद्भन्नदेशस्वाधारवृत्तित्वे सत्येकत्वाद्वंशादिवत्' इत्यनुमानात्तत्र तद्भावसिद्धि : ; इत्यप्यसङ्गतम् ; हेतोः प्रतिवाद्यऽसिद्धत्वात् । न हि भिन्नदेशासु व्यक्तिषु सामान्यमेकं प्रत्यक्षतः स्थूणादौ वंशादिवत्प्रतीयते यतो युगपद्भन्नदेशस्वाधारवृत्तित्वे सत्येकत्वं तस्य सिध्यत्स्वाधारान्तरालेऽस्तित्वं साधयेत् । तन्नाव्यक्तत्वात्तत्राऽनुपलम्भः । नापि व्यवहितत्वादभिन्नत्वादेव । नापि दूरस्थितत्वात्तत एव । सामान्यस्वरूपविचारः + समाधान - यह कथन प्रसंगत है " युगपद् भिन्न देश स्वाधार वृत्तित्वे सति एकत्वात्" अर्थात् एक साथ विभिन्न देशस्थ स्व आधार में रहकर एक स्वरूप है" ऐसा जो इस अनुमान में हेतु प्रयुक्त किया है वह प्रतिवादी जैनादि के लिये प्रसिद्ध है, इसी बात का खुलासा करते हैं - भिन्न भिन्न देशों में स्थित व्यक्तियों में एक ही सामान्य है ऐसा प्रत्यक्ष से प्रतीत नहीं होता है, जैसे कि स्थूण आदि में बांसादिक एक ही प्रतीत होते हैं, जब वह एक रूप प्रतीत ही नहीं होता है तो " एक साथ भिन्न देशस्थ स्व आधार में रहकर भी एक स्वरूप है" ऐसा हेतु निर्दोष प्रसिद्ध होकर अपने आधार जो व्यक्तियां हैं उनके अंतराल में सामान्य का अस्तित्व रूप साध्य को कैसे सिद्ध कर सकता है अर्थात् नहीं कर सकता है, अतः अव्यक्त होने से अन्तराल में सामान्य का अनुपलभ है ऐसा प्रथम विकल्प गलत सिद्ध हुआ । Jain Education International सामान्य को व्यक्तियों के अन्तराल में यत्र तत्र सर्वत्र सिद्ध करने के लिये दूसरा हेतु " व्यवहितत्वात् " था सो यह भी सदोष है क्योंकि सामान्य एक स्वभाव वाला होने से व्यक्तियों से अभिन्न है अतः उसमें व्यवहितपना असम्भव है । दूर में स्थित होने से व्यक्तियों के ग्रन्तराल में सामान्य की उपलब्धि नहीं होती है ऐसा तीसरा हेतु भी व्यवहितत्व के समान गलत है, जब सामान्य को व्यापक रूप स्वीकार करते हो तो उसमें दूर स्थितपना होना ही अशक्य है । अव्यक्तत्व, व्यवहितत्व, दूरस्थितत्व इन तीन हेतुनों का जिस प्रकार से निरसन किया है उसी प्रकार से अन्य तीन हेतु - प्रदृश्यत्व, स्वाश्रयेन्द्रियसम्बन्ध विरहत्व और प्राय समवेत रूपाभावत्व का भी निरसन हुआ समझना चाहिये, क्योंकि व्यक्तियों से सामान्य का भेद है अतः अदृश्य होने आदि से अन्तराल में वह उपलब्ध नहीं होता इत्यादि कथन गलत ठहरता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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