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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे नाप्यदृश्यात्मत्वात्, स्वाश्रयेन्द्रियसम्बन्धविरहात्, श्राश्रयसमवेतरूपाभावाद्वा ; प्रभेदादेव । तन्न सर्व सर्वगतं सामान्यम् । २२ नापि स्वव्यक्तिसर्वगतम् ; प्रतिव्यक्ति परिसमाप्तत्वेनास्यानेकत्वानुषङ्गाद् व्यक्तिस्वरूपवत् । कात्स्यैकदेशाभ्यां वृत्त्यनुपपत्तेश्चाऽसत्त्वम् । भावार्थ - यौग परवादी सामान्य नामा वस्तु को नित्य, सर्वगत एवं एक रूप मानते हैं, इस पर जैन का चोद्य है कि जब सामान्य सर्वत्र व्यापक आदि स्वभाव वाला है तो वह हमेशा व्यक्तियों में ( गो ग्रादि में ) ही क्यों उपलब्ध होता है व्यक्तियों के अन्तराल में क्यों नहीं दिखाई देता ? इसका समाधान योग ने छह हेतुत्रों द्वारा करने का प्रयत्न किया है, किन्तु वह समाधान और वे हेतु सामान्य को सर्वगत सिद्ध नहीं कर पा रहे हैं । अव्यक्त होने से, व्यवहित होने से, दूर स्थित होने से अन्तराल में सामान्य उपलब्ध नहीं होता है ऐसे योग के हेतुओं का निरसन करके जैनाचार्य कहते हैं कि इसी तरह अन्य तीन हेतु भी निराकृत होते हैं, देखो ! श्रदृश्य होने से अन्तराल में सामान्य उपलब्ध नहीं होता ऐसा कहना अशक्य है क्योंकि व्यक्तियों से सामान्य का अभेद है, जब व्यक्तियां दृश्य है तो तद्गत अभिन्न सामान्य अदृश्य कैसे रह सकता है ? अर्थात् नहीं । स्व श्राश्रय में होने वाले इन्द्रिय सम्बन्ध से रहित होने के कारण अंतराल में सामान्य दिखायी नहीं देता ऐसा कहना भी गलत है, क्योंकि स्वाश्रयभूत व्यक्तियों का इन्द्रिय सम्बन्ध मौजूद है तो उनमें प्रभेद रूप से रहने वाले सामान्य का भी इन्द्रिय सम्बन्धपना निश्चित रहेगा, अब वह इन्द्रिय सम्बन्ध सामान्य जब कि एक स्वभाव वाला है तब उसे व्यापक होने के कारण सर्वत्र अन्तरालादि में भी उपलब्ध होना ही पड़ेगा ! सामान्य का अंतराल में प्रभाव सिद्ध करने के लिये अंतिम हेतु " आश्रय समवेत रूप प्रभावात् " दिया था अर्थात् व्यक्तिरूप प्राश्रय में समवेत जो रूप है उसका अंतराल में अभाव है अतः वहां सामान्य उपलब्ध नहीं होता ऐसा कहना भी असत् है सामान्य जब व्यक्ति में अभिन्नपने से स्थित है तब व्यक्ति का रूप उसमें रहेगा ही तथा सामान्य एक ही स्वभाव वाला एवं व्यापक भी है तो अंतराल में ( जहां पर व्यक्तियां नहीं है वहां पर ) भी अवश्य ही उपलब्ध होगा । इस प्रकार परवादी के सामान्य का स्वरूप सिद्ध नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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