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प्रमेयकमलमार्तण्डे सामान्यस्यापि सोऽसत्त्वादेवास्तु विशेषाभावात् । न खलु प्रत्यक्षतस्तत्तत्रोपलभ्यते विशेषरहितत्वात् खरविषाणवत् ।
किञ्च, प्रथमव्यक्तिग्रहणवेलायां तदभिव्यक्तस्यास्य ग्रहणे अभेदात्तस्य सर्वत्र सर्वदोपलम्भप्रसङ्गः सर्वात्मनाभिव्यक्तत्वात्, अन्यथा व्यक्ताव्यक्तस्वभावभेदेनानेकत्वानुषङ्गादसामान्यरूपतापत्तिः । तस्मादुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भाव्यक्त्यन्तराले सामान्यस्यासत्त्वं व्यक्तिस्वात्मवत् ।
जैन-ठीक बात कही, किन्तु यही विषय सामान्य में घटित होता है, व्यक्तियों के अंतराल में सामान्य भी उपलब्ध नहीं होने के कारण असत्व रूप है, या असत्व होने के कारण ही तो वह अन्तराल में उपलब्ध नहीं है, क्योंकि अन्तराल में सामान्य का सद्भाव बतलाने वाला कोई प्रमाण नहीं है। व्यक्तियों के अन्तराल में प्रत्यक्ष प्रमाण से सामान्य उपलब्ध नहीं होता क्योंकि वह विशेष से रहित है, जैसे गधे के सींग विशेष रहित होने से प्रत्यक्ष से उपलब्ध नहीं होते हैं।
दूसरी बात यह है कि पहले व्यक्ति को ग्रहण करते समय उस व्यक्ति में अभिव्यक्त (प्रगट) हुआ यह सामान्य भी उसमें होने से ग्रहण में आवेगा, फिर सभी जगह हमेशा के लिये सामान्य उपलब्ध होता ही रहेगा ? क्योंकि सर्वरूप से प्रगट हो चुका है, यदि सर्वात्मपना प्रगट होने पर भी सर्वत्र उपलब्ध नहीं होता है तो इसका मतलब सामान्य में व्यक्त और अव्यक्त ऐसे दो स्वभाव हैं, और दो स्वभाव हैं तो वह अनेक रूप बना गया ? इस तरह तो वह असामान्य मायने विशेष रूपता को ही प्राप्त हो जाता है, क्योंकि अनेकपना विशेष में होता है । इस आपत्ति को दूर करने के लिये व्यक्तियों के अन्तराल में (शबली शुक्ल आदि गो व्यक्तियों के बीच बीच के स्थानों में) उपलब्ध होने योग्य होते हुए भी उपलब्ध नहीं होता अतः वहां सामान्य का अभाव ही है ऐसा मानना चाहिये जैसे कि व्यक्तियों के निजस्वरूप का अन्तराल में अभाव है।
शंका- व्यक्तियों के अन्तराल में सामान्य है क्योंकि एक साथ भिन्न भिन्न देशों में स्थित अपने आधार ( गो आदि व्यक्तियों में ) में रहकर भी एक है, जैसे लंबा बांस स्तम्भ आदि में एक साथ उपलब्ध होने से एक रूप है ? इस अनुमान द्वारा अन्तराल में सामान्य की सिद्धि हो जाती है ?
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