SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामान्यस्वरूपविचारः तथा तत्सर्वसर्वगतम्, स्वव्यक्तिसर्वगतं वा ? न तावत्सर्वं सर्वगतम् ; व्यक्त्यन्तरालेऽनुपलभ्यमानत्वाद्व्यक्तिस्वात्मवत् । तत्रानुपलम्भो हि तस्याऽव्यक्तत्वात्, व्यवहितत्वात्, दूरस्थित खात्, श्रदृश्यत्वात्, स्वाश्रयेन्द्रियसम्बन्धविरहात् श्राश्रयसमवेतरूपाभावाद्वा स्याद्गत्यन्तराभावात् ? न तावदव्यक्तत्वात्; एकत्र व्यक्तौ सर्वत्र व्यक्तेरभिन्नत्वात् । श्रव्यक्तत्वाच्चान्तराले तस्यानुपलम्भे व्यक्तिस्वात्मनोप्यनुपलम्भोऽत एवास्तु । तत्रास्य सद्भावावेदकप्रमाणाभावादसत्त्वादेवाऽनुपलम्भे सकता है) इस प्रकार इस अनुमान द्वारा नित्य एक स्वभाव वाले सामान्य में वस्तुपने की प्रपत्ति प्राती है, क्योंकि वस्तु का स्वभाव अर्थ क्रिया कारित्व है और नित्य सामान्य में वह सिद्ध नहीं होती है । १६ परवादी उस सामान्य को सर्वगत भी मानते हैं सो उसमें प्रश्न है कि स्वसंबंधी सभी व्यक्तियों में तथा अन्यत्र सर्वत्र रहना रूप सर्व सर्वगतपना है अथवा विवक्षित एक व्यक्ति में सर्वांशपने से रहना रूप स्वव्यक्तिसर्वगतपना है ? सर्वसर्वगत होना तो बनता नहीं है, क्योंकि सामान्य धर्म व्यक्तियों के अंतराल में उपलब्ध नहीं होता है, जिस प्रकार कि व्यक्ति का स्वरूप अंतराल में उपलब्ध नहीं होता है । आप सामान्य को सर्वसर्वगत होते हुए भी व्यक्तियों के अन्तराल में उसकी अनुपलब्धि होना कैसे सिद्ध कर सकेंगे, कौनसे हेतु उनमें रहेंगे ? व्यक्तियों के अन्तराल में सामान्य अव्यक्त होने से उपलब्ध नहीं होता अथवा व्यवहित होने से, या दूर में स्थित रहने से, अदृश्य के कारण, स्वाश्रयभूत इन्द्रिय का सम्बन्ध नहीं होने से, या कि आश्रय में समवेत रूप का अभाव होने से उपलब्ध नहीं होता है ? इन छह हेतुत्रों को छोड़कर अन्य तो कोई हेतु है नहीं । अंतराल में सामान्य अव्यक्त रहने के कारण उपलब्ध नहीं होता है ऐसा प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि जब वह सामान्य एक गो व्यक्ति में व्यक्त हुआ दिखायी देता है तब वह सर्वत्र व्यक्त हो बन जायगा, क्योंकि व्यक्त स्वभाव से वह अभिन्न है ? सामान्य अव्यक्त है और इसी वजह से अंतराल में उपलब्ध नहीं होता है ऐसा बताया जाय तो व्यक्तियों के विषय में भी यही बात कह सकते हैं कि व्यक्तियां सर्वगत हैं किन्तु अन्तराल में अव्यक्तता के कारण उपलब्ध नहीं होती हैं इत्यादि ? योग - व्यक्तियों को सर्वगत मान ही नहीं सकते, क्योंकि अन्तराल में व्यक्तियों का अथवा व्यक्तियों के स्वरूप का सद्भाव बतलाने वाला कोई प्रमाण नहीं है, अतः उनका अन्तराल में असत्व होने के कारण प्रनुपलंभ है ऐसा मानना चाहिये ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy