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________________ १८ प्रमेयकमलमार्तण्डे च्चास्य न कस्याञ्चिदर्थक्रियायां व्यापारः । व्यापारे वा सहकारिनिरपेक्षितया सदा कार्यकारित्वानुषङ्गः, तदवस्थाभाविनः कार्यजननस्वभावस्य सदा सम्भवात्, प्रभावे च अनित्यत्वं स्वभावभेदलक्षणत्वात्तस्य । कार्याजननस्वभावत्वे वा अस्य सर्वदा कार्याजनकत्वप्रसङ्गः। यो हि यदऽजनकस्वभाव: सोन्यसहितोपि न तज्जनयति यथा शालिबीजं क्षित्याद्यविकलसामग्रीयुक्त कोद्रवांकुरम्, अजनकस्वभावं च सामान्य कार्यस्य, इत्यवस्तुत्वापत्तिनित्यैकस्वभावसामान्यस्य, अर्थक्रियाकारित्वलक्षणत्वाद्वस्तुनः । कैसे होगा ? इस तरह की आशंका हो तो चक्षु का दृष्टान्त देकर बताते हैं, चक्षु को जानने पर ही उसके रूप को जानने में व्यापार होवे सो बात है नहीं, इसी प्रकार चक्षु का धर्म जो अदृष्ट है उसका भी अनधिगत होकर ही रूप को जानने में अधिपतित्व भाव से व्यापार होता हुआ देखा जाता है, वैसे व्यक्तियों का भी अनुगताकार ज्ञान में अनधिगत रहकर भी व्यापार हो सकेगा ही ? यह बात भी है कि परवादी संमत सामान्य तो सर्वथा नित्य है, नित्य वस्तु में अक्रम से और क्रम से अर्थ क्रिया होना विरुद्ध है अतः नित्य सामान्य का किसी भी अर्थ क्रिया में [एक ज्ञान की उत्पत्ति में व्यापार होना असंभव है। यदि नित्य सामान्यादि वस्तु अर्थक्रिया में व्यापार करती है ऐसा जबरदस्ती मान लेवे तो भी वह नित्य वस्तु सहकारी के अपेक्षा के बिना ही सर्वदा कार्य को ( स्वविषय में ज्ञान को अथवा अनुगताकार ज्ञान को ) करती ही रहेगी ? क्योंकि सहकारी से रहित अवस्था वाले उस सामान्यादि नित्य वस्तु का कार्य को उत्पन्न करने का स्वभाव सदा विद्यमान ही रहता है । यदि परवादी कहे कि उस नित्य वस्तु में ऐसा स्वभाव हमेशा नहीं रहता है तब तो वह वस्तु अनित्य ही कहलायेगी, क्योंकि स्वभाव में भेद होना, परिवर्तन होना यही तो अनित्य का लक्षण है। नित्य वस्तुभूत इस सामान्यादि में स्वविषय में ज्ञानोत्पत्ति आदि कार्य को करने का स्वभाव नहीं माना जाय तो वह नित्य वस्तु कभी कार्य को उत्पन्न कर ही नहीं सकेगी। इसी विषय का खुलासा करते हैं- सामान्यादि नित्य वस्तु कार्य की जनक नहीं हुआ करती, क्योंकि उसमें कार्य का अजनकत्व स्वभाव है, जो जिसका अजनक स्वभाव वाला होता है वह अन्य जो सहकारी कारण है उससे युक्त होने पर भी कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता है, जैसे शालि ( चावल ) के बीज में कोदों के अंकुर को उत्पन्न करने का स्वभाव नहीं है तो वह शालि बीज पृथिवी जलादि सम्पूर्ण सामग्री के मिलने पर भी उस कोदों के अंकुर को उत्पन्न नहीं ही करता, ऐसे ही सामान्य है उसमें कार्य का अजनकत्व रूप स्वभाव है ( अतः वह स्वविषय में ज्ञानोत्पत्ति रूप कार्य नहीं कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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