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________________ सामान्यस्वरूपविचार: भिन्नस्यास्य करणे 'तस्य' इतिव्यपदेशासिद्धिः । तत्कृतोपकारेणाप्युपकारान्तरकरणेऽनवस्था । द्वितीयपक्षे तु व्यक्तिसहभाववैयर्थ्यम् सामान्यस्य, अकिञ्चित्करस्य सहकारित्वासम्भवात् । सामान्येन सहैकज्ञानजनने व्यापाराद्वयक्तीनां तत्सहकारित्वेपि किमालम्बनभावेन तत्र तासां व्यापारः, अधिपतित्वेन वा? प्राच्यकल्पनायाम् एकमनेकाकारं सामान्यविशेषज्ञानं सर्वदा स्यात्, स्वालम्बनानुरूपत्वात्सकल विज्ञानानाम् । द्वितीयविकल्पे तु व्यक्तीनामनधिगमेपि सामान्यज्ञानप्रसंग:। न खलु रूपज्ञाने चक्षुषोधिगतस्याधिपतित्वेन व्यापारो दृष्ट : अदृष्टस्य वा, सर्वथा नित्यवस्तुन: क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियाविरोधा जाता है तो सामान्य व्यक्ति का कार्य कहलायेगा, क्योंकि व्यक्ति द्वारा सामान्य का अभिन्न ऐसा उपकार किया गया है ? नित्य सामान्यवादी उस उपकार को सामान्य से भिन्न किया हुआ मानते हैं तो "यह सामान्य का उपकार है" इस प्रकार कह नहीं सकेंगे । यदि सामान्य और उपकार का सम्बन्ध जोड़ने के लिये अन्य उपकार व्यक्ति द्वारा किया जाना माने तो अनवस्था स्पष्ट ही दिखायी देती है। व्यक्ति द्वारा सामान्य का कुछ उपकार नहीं किया जाता ऐसा दूसरा पक्ष स्वीकार करे तो सामान्य का व्यक्ति के साथ रहना व्यर्थ होगा, जो कुछ भी नहीं करता है उस अकिञ्चितकर में सहकारी भाव होना असंभव ही होगा। यौग-शबली आदि गो व्यक्तियां "गो है, गो है" इस प्रकार के एक ज्ञान को उत्पन्न कराने में सामान्य को सहायता पहुंचाती हैं अतः उन व्यक्तियों को सामान्य का सहकारी मानते हैं, अर्थात् व्यक्तियों में सहकारीपना होता ही है ? जैन- ऐसी बात है तो बताइये कि व्यक्तियां सामान्य को सहकारी बनती हैं सो एक ज्ञान को उत्पन्न कराने में सामान्य के साथ उन व्यक्तियों का आलंबन भाव से व्यापार होता है अथवा अधिपतित्व भाव से व्यापार होता है ? प्रथम पक्ष की बात कहो तो एक अनुवृत्ताकार जो ज्ञान है वह अनेकाकार सामान्य विशेष रूप हमेशा होने लगेगा क्योंकि सामान्य एक रूप और व्यक्तियां अनेक रूप है और दोनों का उस ज्ञान में आलंबन है.। सभी ज्ञान अपने आलंबन के अनुसार होते हैं यह बात प्रसिद्ध ही है । दूसरा पक्ष-अनुगताकार ज्ञान की उत्पत्ति में सामान्य के साथ व्यक्तियों का अधिपतित्व भाव से व्यापार होता है ऐसा कहने पर तो व्यक्तियों को बिना जाने भी सामान्य का ज्ञान होने का प्रसंग आता है । व्यक्तियों को बिना जाने सामान्य का ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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