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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे वायुमंयोगेन वनस्पती क्रियाकारणेन समानधर्मत्वादाकाशे वायुसंयोगस्य । यत्त्व सौ तत्र क्रियां न करोति तन्नाकारणत्वात्, किन्तु परममहापरिमाणेन प्रतिबद्धत्वात् । अथ क्रियाकारणवायुवनस्पतिसंयोगसदृशो वाय्वाकाशसंयोगो न पुनः क्रियाकारणम् ; न कश्चिदप्येवं हेतुरनैकान्तिकः स्यात्-'अनित्यः शब्दोऽमूर्त्तत्वात्सुखादिवत्' इत्यत्राप्यमूर्तत्वं हेतुः शब्देऽन्योन्यश्चाकाशे तत्सदृश इति कथमस्याकाशेनानैकान्तिकत्वम् ? सकलानुमानोच्छेदश्च, अनुमानस्य सादृश्यादेव प्रवर्तनात् । न खलु ये धूमधर्माः क्वचिधूमे बतलाते हैं कि वायु के साथ संयोग होना रूप क्रियाहेतु गुणाश्रय आकाश में है किंत उसमें तीन काल में भी क्रिया की संभावना नहीं है । वायु के साथ संयोग होना क्रिया का हेतु नहीं है ऐसा कहना भी असत् है, देखा जाता है कि वायु के संयोग से वनस्पति में क्रिया होती है, आकाश में वनस्पति की तरह ही वायु के साथ संयोग होना रूप समान धर्म है। इतनी बात है कि यह वायुसंयोग आकाश में क्रिया को नहीं करता वह अकारणपना होने से नहीं करता हो ऐसी बात नहीं किंतु आकाश परम महापरिमाण से प्रतिबद्ध होने के कारण उक्त वायुसंयोग क्रिया को नहीं करता है । यदि कहा जाय कि क्रिया का कारण जो वायु और वनस्पति का संयोग है उसके समान अन्य ही कोई वाय और आकाश का संयोग है अर्थात् वनस्पति और वायु का संयोग भिन्न जातीय है और वायु तथा आकाश का संयोग भिन्न है अतः क्रिया का कारण नहीं है ? सो यह कहना अयुक्त है, इसतरह तो कोई भी हेतु अनैकान्तिक नहीं रहेगा। इसका खलासाशब्द अनित्य है, क्योंकि वह अमूर्त है जैसे सुखादिक, ऐसा अनुमान किया जाय तो इसका जो अमूर्त्तत्व हेतु है वह शब्दरूप पक्ष म अन्य है और आकाश में उसके समान कोई अन्य है, ऐसा संभावित किया जा सकता है अतः अमूर्तत्व हेतु का आकाश के साथ व्यभिचार दिखाना अर्थात् अनैकान्तिक दोष उपस्थित करना कैसे सम्भव होगा ? इसतरह तो अनैकान्तिक दोष ही जगत् से उठ जायगा। दूसरी बात यह भी है कि इसप्रकार वायुवनस्पति संयोग और वायुप्राकाश संयोग इनकी भिन्नता मानी जाय तो संपूर्ण अनुमान का विच्छेद होवेगा, अनुमान तो सादृश्य से ही प्रवृत्त होता है, अर्थात् अन्य के साथ व्याप्तियुक्त देखे हुए पदार्थ का अन्यत्र दर्शन हो जाने से हो अनुमान का प्रवर्तन माना गया है। किसी पर्वत आदि स्थान पर होने वाले धूम में जो धूम के धर्म [वर्णादिगुण] देखे जाते हैं, वे ही धर्म अन्य स्थान के धूम में नहीं देखे जाते, वहां तो उसके समानरूप वाले भिन्न ही धूमधर्म उपलब्ध होते हैं । अतः होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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