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________________ ५८८ प्रमेयकमलमार्तण्डे नापि जातिमात्रेण । तथाहि-तस्या: सामान्य लक्षणम्-"साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः" [न्यायसू० १।२।१८] इति । तस्याश्चानेकत्वं साधयंवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानस्य भेदात् । तथा च न्यायभाष्यकार:-"साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानस्य विकल्पाज्जातिबहुत्वमिति" [न्यायभा० ५।१।१] । ताश्च खल्विमा जातयः स्थापनाहेतौ प्रयुक्त चतुर्विंशतिः, प्रतिषेधहेतव:-"साधर्म्यवैधोत्कर्षापकर्षवर्ध्यावर्ण्य विकल्पसाध्यप्राप्त्यऽप्राप्तिप्रसंगप्रतिदृष्टान्तानुपपत्तिसंशयप्रकरणाहेत्वर्थापत्त्यविशेषोपपत्त्युपलब्ध्यनुपलब्धिनित्यानित्यकार्यसमाः" [ न्यायसू० ५।१११ ] इति सूत्रकारवचनात् । तत्र साधर्म्यसमां जाति न्यायभाष्यकारो व्याचष्टे-साधयेणोपसंहारे कृते साध्यधर्मविपर्ययो पराजय होना स्वीकार किया है । निष्कर्ष यह है कि उपचार छल को वाद में पराजय का कारण मानना अयुक्त है । जाति मात्र के द्वारा भी पराजय सम्भव नहीं है । नैयायिक के यहां जातिका सामान्य लक्षण इसप्रकार है-साधर्म्य या वैधर्म्य द्वारा दूषण उपस्थित करना जाति है । साधर्म्य वैधर्म्य द्वारा दोष के अनेक भेद होने से जाति के अनेक भेद हैं। न्यायभाष्यकार भी इसीतरह प्रतिपादन करते हैं कि साधर्म्य ( अन्वय दृष्टान्त ) द्वारा या वैधर्म्य ( व्यतिरेक दृष्टांत ) द्वारा दोष उपस्थित करने के अनेक विकल्प होने से जाति बहुत भेद वाली है । ये जो जातियां हैं वे विधिरूप साध्य को सिद्ध करने वाले हेतु के प्रयुक्त होने पर उसका प्रतिषेध करने वाली चौबीस प्रकार की हुआ करती हैंसाधर्म्यसमा १ वैधर्म्यसमा २ उत्कर्षसमा ३ अपकर्षसमा ४ वर्ण्यसमा ५ अवर्ण्यसमा ६ विकल्पसमा ७ साध्यसमा ८ प्राप्तिसमा ६ अप्राप्ति समा १० प्रसंगसमा ११ प्रतिदृष्टांतसमा १२ अनुत्पत्तिसमा १३ संशयसमा १४ प्रकरणसमा १५ अहेतुसमा १६ अर्थापत्तिसमा १७ अविशेषसमा १८ उपपत्तिसमा १६ उपलब्धिसमा २० अनुपलब्धिसमा २१ नित्यसमा २२ अनित्यसमा २३ कार्यसमा २४ । न्याय सूत्र में गौतमऋषि ने इस प्रकार प्रतिपादन किया है । इन जातियों में से प्रथम भेद साधर्म्यसमा का न्याय भाष्यकार ने इसप्रकार प्रतिपादन किया है-वादी द्वारा साधर्म्य दृष्टांत द्वारा अनुमान पूर्ण कर चकने पर प्रतिवादी साध्यधर्म का विपर्यय करके साधर्म्य द्वारा दोष उपस्थित करता है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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