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________________ जय-पराजयव्यवस्था ५८७ ताविति । यदा तु वक्ता गौणमर्थमभिप्रेति प्रधानभूतं परिकल्प्य परः प्रतिषेधति तदा तेन स्वमनीषा प्रतिषिद्धा स्यान्न परस्याभिप्राय इति नास्यायमुपालम्भः स्यात्, तदनुपालम्भाच्चासी परजीयते ; इत्यप्यविचारितरमणीयम् ; यतो यद्य तावतैवासी निगृह्यत तहि यौगोपि सकलशून्यवादिनं प्रति मुख्यरूपतया प्रमाणादिप्रतिषेधं कुर्वनिगृह्यत, संव्यवहारेण प्रमाणादेस्तेनाभ्युपगमात् । ततः स्वपक्षसिद्ध्यव परस्य पराजयो न पुनश्छलमात्रेण । इत्यादिरूप से ही यदि प्रतिवादी का निग्रह या पराजय किया जाय तो शून्यावत वादी बौद्ध के प्रति मुख्य रूप से प्रमाणादिका प्रतिषेध करता हुया नैयायिक-वैशेषिक भी पराजित किया जा सकता है । क्योंकि शून्यवादी ने भी लोक व्यवहार में उपचाररूप से प्रमाणादि तत्त्व को स्वीकार किया है। अतः यही बात निश्चित है कि स्वपक्ष की सिद्धि करने पर ही प्रतिवादी का पराजय हो सकता है न कि छल मात्र से हो सकता। विशेषार्थ --नैयायिक के यहां उपचार छल का वर्णन करते हुए कहा है कि वादी [प्रथम बार अपना पक्ष उपस्थित करनेवाले को वादी और उसका निषेध करते हुए अपना अन्य पक्ष या मंतव्य स्थापित करनेवाले को प्रतिवादी कहते हैं ] किसी शब्द के गौरण अर्थ को इष्ट करके कथन करे और प्रतिवादी उक्त कथन में प्रधान अर्थ को लेकर दोष उपस्थित करे तो यह उपचार छल है, इसतरह के छल करने से प्रतिवादी का पराजय हो जायगा। किंतु नैयायिक का यह कथन अयुक्त है, इससे तो उनका ही पराजय सम्भव है। वही दिखाते हैं। नयायिक आदि प्रवादी बौद्ध के सकल शून्यवाद का निरसन करते हैं। शून्यवादी प्रमाण द्वारा शून्यवाद का समर्थन करते हैं, उनके यहां यद्यपि कोई भी तत्त्व वास्तविक नहीं है तो भी अपने शून्यवादका समर्थन करने के लिये प्रमाण उपस्थित करते हैं, उनका कहना है कि केवल लोक व्यवहार चलाने के लिये प्रमाण, प्रमेय आदि तत्त्व हम लोग उपचार रूप से स्वीकार करते हैं । इस शून्यवादी का मंतव्य निराकृत करते हुए यदि नैयायिक कहे कि आपने जब सकल शून्यवाद स्वीकार किया है तब प्रमाण द्वारा शून्यत्व का समर्थन भी नहीं कर सकते । इस पर शून्यवादी कह देगा कि हमने शून्यत्व को गौण प्रमाण द्वारा सिद्ध किया है न कि प्रधान प्रमाण द्वारा, आपने हमारे गौणभूत अर्थ का व्याघात करके प्रधान अर्थ लिया है अतः आप उपचार छल के प्रयोक्ता होने से निगृहीत हो चुके हैं, क्योंकि आपके हो मत में उपचार छल माना है और उसके प्रयोक्ता प्रतिवादी का उससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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