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________________ ५८६ प्रमेयकमलमार्तण्डे [ न्यायसू० १।२।१४ ] इति । धर्मस्य हि क्रोशनादेविकल्पोऽध्यारोपस्तस्य निर्देशे 'मञ्चा: क्रोशन्ति गायन्ति' इत्यादौ तात्स्थ्यात्तच्छब्दोपचारेणासद्भूतार्थस्य तु परिकल्पनं कृत्वा परेण प्रतिषेधो विधीयते'न मञ्चा: क्रोशन्ति किन्तु मञ्चस्था: पुरुषा: क्रोशन्ति' इति । तच्च परस्य पराजयाय जायते यथावक्त रभिप्रायमप्रतिषेधात् । शब्दप्रयोगो हि लोके प्रधानभावेन गुणभावेन च सिद्धः । ततो यदि वक्त गौणोर्थोभिप्रेतः, तदा तस्यानुज्ञानं प्रतिषेधो वा विधातव्यः । अथ प्रधानभूतः; तदा तस्य निर्देश होने पर मुख्य अर्थ के सद्भाव का निषेध करना उपचार छल है। वादी क्रोशन (गाना-चिल्लाना) आदि धर्म का विकल्प उपचरित कर कथन करता है कि "मंचा: क्रोशंति" मंच गा रहे हैं, इस वाक्य में "तात्स्थ्यात् तत् शब्द प्रयोगः” उसमें स्थित व्यक्ति का उस शब्द से उपचार किया जाता है इस न्याय के अनुसार मंच में स्थित पुरुष ही मंच शब्द द्वारा कह गया है अर्थात् मंच गा रहे हैं इस वाक्य का अर्थ मंच पर बैठे हुए पुरुष गा रहे हैं ऐसा है किन्तु वादी के इस वाक्य को प्रतिवादी असद्भूत अर्थ वाला कहकर प्रतिषेध करता है कि मंच नहीं गा रहे किन्तु मंच पर स्थित पुरुष गा रहे हैं । इसप्रकार उपचार छल करना प्रतिवादी के पराजय का ही कारण होगा, क्योंकि इसने वक्ता के अभिप्राय का उल्लंघन न करते हुए प्रतिषेध नहीं किया है, अर्थात् वक्ता के अभिप्राय का उल्लंघन करके उसके वाक्य में दोष उपस्थित किया है । लोक व्यवहार में शब्द का प्रयोग गौणभाव और प्रधान भाव दोनों रूप से हुअा करता है। अतः यदि वक्ता को गौण अर्थ इष्ट है तो उसका अनुज्ञान या प्रतिषेध प्रतिवादी को करना चाहिए, अर्थात् वादी ने जो गौण अर्थ इष्ट करके वाक्य कहा है वह सिद्ध है तो स्वीकार करना और प्रसिद्ध है तो प्रतिषेध करना चाहिये। तथा यदि वक्ता को प्रधान अर्थ इष्ट है तो उसका अनुज्ञान या प्रतिषेध करना चाहिये। इसप्रकार की व्यवस्था है, किंतु प्रतिवादी ऐसा नहीं करता, वक्ता गौण अर्थ इष्ट कर रहा और प्रतिवादी प्रधान अर्थ को लेकर प्रतिषेध करता है तो प्रतिवादी द्वारा स्व अभिप्राय ही निषिद्ध माना जायगा, न कि वादीका अभिप्राय । इसलिये यह दोष या पराजय वादी का नहीं कहलायेगा, और वादी निर्दोष वक्ता होने से प्रतिवादी ही पराजित माना जायगा। नैयायिक के इस उपचार छल का प्राचार्य निराकरण करते हैं कि यह कथन अविचारपूर्ण है, क्योंकि गीण अर्थ अभीष्ट होनेपर मुख्य अर्थ द्वारा निषेध करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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