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________________ जय-पराजयव्यवस्था पपत्तेः साधर्म्येण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमः प्रतिषेधः । निदर्शनम् -' क्रियावानात्मा, क्रिया हेतुगुणाश्रयत्वात्, यो य: क्रियाहेतुगुणाश्रयः स स क्रियावान् यथा लोष्ट : तथा चात्मा, तस्मात् क्रियावान्' इति साधर्म्यदाहरणेनोपसंहारे कृते परः साध्यधर्मविपर्ययोपपत्तितः साधम्र्योदाहरणेनैव प्रत्यवतिष्ठते'निष्क्रिय श्रात्मा विभुद्रव्यत्वादाकाशवत्' इति । न चास्ति विशेष : - 'क्रियावत्साधम्र्यात्क्रियावता भवितव्यं न पुनर्निष्क्रियत्वसाधर्म्यान्निष्क्रियेण' इति साधर्म्यसमो दूषणाभासः । न ह्यात्मनः क्रियावत्त्वे साध्ये क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वस्य हेतोः स्वसाध्येन व्याप्तिः विभुत्वान्निष्क्रियत्वसिद्धौ विच्छिद्यते । न च तदविच्छेदे तद्वृषणत्वम्, साध्यसाधनयोर्व्याप्तिविच्छेदसमर्थस्यैव दोषत्वेनोपवनात् । वार्तिककारस्त्वेवमाह - साधर्म्येणोपसंहारे कृते तद्विपरीतसाधर्म्यरेण प्रत्यवस्थानं वैधर्म्येणोप ५८६ साधर्म्यसमा जाति है । इसका उदाहरण - प्रात्मा क्रियावान् है, क्योंकि वह क्रिया का हेतु रूप जो गुण है उसका श्राश्रय स्वरूप है, जो जो क्रिया हेतु गुणका आश्रय है वह वह पदार्थ क्रियावान् होता है, जैसे लोष्ट [ मिट्टी का ढेला ] आत्मा भी उस तरह है अतः क्रियावान् है, इसप्रकार साधर्म्य उदाहरण द्वारा वादी के उपसंहार करने पर प्रतिवादी साध्यधर्म को विपर्ययरूप बदलकर साधर्म्य उदाहरण द्वारा ही दोष देता है । वह इसप्रकार - आत्मा निष्क्रिय है, व्यापकद्रव्य होने से जैसे प्रकाश । किंतु इन वादी और प्रतिवादी के अनुमानों में कुछ विशेषता सम्भव नहीं कि जिससे क्रियावान् द्रव्य से साधर्म्य होने के कारण आत्मा क्रियावान् तो सिद्ध हो किन्तु निष्क्रिय द्रव्य से साधर्म्य होने से आत्मा निष्क्रिय सिद्ध नहीं हो । अतः वादी द्वारा प्रयुक्त उक्त अनुमान में प्रतिवादी द्वारा प्रतिपादित किया गया साधर्म्यसमा नामा जातिदोष दोष नहीं दूषणाभास है । क्योंकि प्रात्मा के क्रियावान्पने को साध्य बनाकर प्रयुक्त हुआ "क्रिया हेतु गुणाश्रयत्व" नामा हेतु अपने साध्य के साथ जो व्याप्ति [ प्रविनाभाव ] रखता है। वह अविनाभाव विभुद्रव्यत्व अर्थात् व्यापकत्व नामा हेतु द्वारा उसी आत्मा के निष्क्रियत्व सिद्ध करने पर नष्ट नहीं होता है । यदि कहा जाय कि अविनाभाव का विच्छेद भले ही मत होवे किन्तु साध्यसम [ श्रथवा साधर्म्यसमा ] दोष तो होगा ? सो ऐसी बात भी नहीं है, क्योंकि साध्य और साधन का जो अविनाभाव है उसके विच्छेद करने में जो समर्थ है वही दोष कहलाता है ग्रन्य नहीं । न्यायसूत्र पर वार्तिक रचनेवाले उद्योतकर उक्त जाति का इसप्रकार वर्णन करते हैं कि साधर्म्य द्वारा वादी के उपसंहार करने पर उस साधर्म्य से अन्य विपरीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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