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________________ ५८२ स्वपरपक्षयोः साधनदूषणत्वासम्भवतो जयेतरव्यवस्थानिबन्धनत्वायोगात् । ततः परेषां सामान्यतो विशेषतश्च छलादीनां लक्षणप्रणयनमयुक्तमेव । तत्र सामान्यतश्छल लक्षणम् प्रमेयकमलमार्त्तण्डे "वचनविघातोर्थविकल्पोपपत्त्या छलम्" [ न्यायसू० १ २ ।१०] इति । "तस्त्रिविधं वाक्छलं सामान्यच्छलमुपचारच्छलं च" [ न्यायसू० १ २ ।११] इति । तत्र वाक्छल लक्षणं तेषाम् - "प्रविशेषाभिहितेर्थे वक्तुरभिप्रायादर्थान्तरकल्पना वाक्छलम्” [ न्यायसू० १२।१२] इति । श्रस्योदाहरणम् -'श्राढ्यो वै वैधवेयोयं वर्तते नवकम्बलः' इत्युक्ते प्रत्यवस्थानम् कुतोस्य नव कम्बला : ? नवकम्बलशब्दे हि सामान्यवाचिन्यत्र प्रयुक्त' 'नवोस्य कम्बलो जीर्णो नैव' इत्यभिप्राय वक्त:, तस्मादन्यस्यासम्भाव्यमानार्थस्य कल्पना 'नव भ्रस्य कम्बला नाष्टी' जैन - यह बात गलत है, छल आदि तो असत् उत्तर देना रूप है । उन छलादि से अपने पक्षका साधन और परपक्ष में दूषण देना रूप कार्य हो नहीं सकता, अतः जय पराजय की व्यवस्था उनके द्वारा होना असम्भव है । जब छल जाति आदि की वाद में उपयोगिता ही नहीं है तो उनका सामान्य और विशेषरूप से लक्षण करना, उदाहरण सहित विस्तृत विवेचन सब व्यर्थ ही है अब यहां पर योग मतानुसार छल श्रादि का वर्णन करते हैं । सामान्य से छल का लक्षण - " वचन विघातोऽर्थविकल्पोपपत्या छलम्” अर्थ - विकल्प द्वारा [ अर्थ को बदलकर ] वचन का व्याघात कर देना छल है, इसके तीन भेद हैं, वाक् छल, सामान्य छल और उपचार छल । योग के यहां वाक् छल का लक्षण इसतरह बताया है कि वक्ता सामान्यरूप से किसी अर्थ को कहने वाला वचन प्रयोग करता है तब उसके अभिप्राय को छोड़कर अन्य ही अर्थ की कल्पना करना वाक् छल है, इसका उदाहरण देते हैं - यह वैधवेय धनवान् है, क्योंकि नव कंबल युक्त है, ऐसा वादी ने अनुमान प्रयुक्त किया तब प्रतिवादी उसके अभिप्राय को जान बूझकर विपरीत करके कहता है कि इसके नौ कंबल कहां हैं ? वादी ने तो सामान्य से नवकंबल शब्द का प्रयोग किया था उसका अभिप्राय तो यह था कि इस व्यक्ति का कंबल नवीन है पुराना नहीं, इस सामान्य सरल सोधे अर्थ को बदलकर जो अर्थ असम्भव है उसकी कल्पना करना कि इसके नौ कंबल हैं प्राठ नहीं इत्यादि । सो यह प्रतिवादी का कथन अन्याय पूर्ण है अतः उसका पराजय होता है, बुद्धिमान पुरुषों को तत्व परीक्षा करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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