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________________ जय-पराजयव्यवस्था ५८१ ततः सिद्धश्चतुरङ्गो वादः स्वाभिप्रेतार्थव्यवस्थापन फलत्वाद्वादत्वाद्वा लोकप्रख्यात वादवत् । एकाङ्गस्यापि वैकल्ये प्रस्तुतार्थाऽपरिसमाप्तेः। तथा हि । अहङ्कारग्रहग्रस्तानां मर्यादातिक्रमेण प्रवर्तमानानां शक्तित्रयसमन्वितौदासीन्यादिगुणोपेतसभापतिमन्तरेण । "अपक्षपतिता प्राज्ञाः सिद्धान्तद्वयवेदिनः । असद्वादनिषेद्धारः प्राश्निकाः प्रग्रहा इव ।" इत्येवंविधप्राश्निकांश्च विना को नाम नियामकः स्यात् ? प्रमाणतदाभासपरिज्ञानसामोपेतवादिप्रतिवादिभ्यां च विना कथं वादः प्रवर्तेत ? ननु चास्तु चतुरङ्गता वादस्य । जयेतरव्यवस्था तु छलजातिनिग्रहस्थानैरेव न पुनः प्रमाणतदाभासयोर्दुष्टतयोद्भावितयोः परिहृतापरिहृतदोषमात्रेण; इत्यप्यपेशलम् ; छलादीनामसदृत्तरत्वेन था कि चतुरंगवाद होता है सो सिद्ध हुआ, वाद के चार अंग होते हैं यही अपने इच्छित तत्व को व्यवस्था करता है, सच्चा वादपना तो इसी में है, जैसे कि लोक प्रसिद्ध वाद में वादपना या तत्व व्यवस्था होने से चतुरंगता होती है । यह निश्चित समझना कि यदि वाद में एक अंग भी नहीं रहेगा तो वह प्रस्तुत अर्थ जो तत्वाध्यवसाय संरक्षण है उसे पूर्ण नहीं कर सकता । अब आगे वाद के ये चार अंग सिद्ध करते हैं, सबसे पहले सभापति को देखे, वाद सभा में जब वादी प्रतिवादी अहंकार से ग्रस्त होकर मर्यादा का उल्लंघन करने लग जाते हैं तब उनको प्रभुत्व शक्ति, उत्साह शक्ति और मन्त्र शक्ति ऐसी तीन शक्तियों से युक्त उदासीनता पापभीरुता गुणों से युक्त ऐसे सभापति के बिना कौन रोक सकता है ? तथा अपक्षपाती, प्राज्ञ, वादी प्रतिवादी दोनों के सिद्धांत को जानने वाले, असत्यवाद का निषेध करने वाले ऐसे प्राश्निक-सभ्य हुग्रा करते हैं जो कि बैलगाड़ी को चलाने वाले गाड़ीवान जैसे बैलों को नियंत्रण में रखते हैं वैसे वादी प्रतिवादी को नियंत्रण में रखते हैं, उनको मर्यादा का उल्लंघन नहीं करने देते । प्रमाण और प्रमाणाभास के स्वरूप को जानने वाले वादी प्रतिवादी के बिना तो वाद हो काहे का ? इसप्रकार निश्चित होता है कि वाद के चार अंग होते हैं। __ यौग-वाद के चार अंग भले ही सिद्ध हो जाय किन्तु जय पराजय की व्यवस्था तो छल जाति और निग्रह स्थानों से ही होती है न कि प्रमाण और प्रमाणाभास में दुष्टता से दिये गये दोषों के परिहार करने और नहीं करने से होती है। जय हो चाहे पराजय हो वह तो छल आदि से ही होगा ? . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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