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________________ ५८० प्रमेयकमलमार्तण्डे बाधकमुद्भावयतो यथाकथञ्चिन्निर्मुखीकरणं लकुटचपेटादिभिस्तन्न्यक्करणस्यापि तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वानुषङ्गात् । न च जल्पवितण्डाभ्यां निखिलबाधकनिराकरणम् ; छलजात्युपक्रमपरतया ताभ्यां संशयस्य विपर्ययस्य वा जननात् । तत्त्वाध्यवसाये सत्यपि हि परनिमुखीकरणे प्रवृत्तौ प्राश्निकास्तत्र संशेरते विपर्ययस्यन्ति वा-'किमस्य तत्त्वाध्यवसायोस्ति किं वा नास्तीति, नास्त्येवेति वा' परनिर्मुखीकरणमात्रे तत्वाध्यवसायरहितस्यापि प्रवृत्त्युपलम्भात् तत्त्वोपप्लववादिवत् । तथा चाख्यातिरेवास्य प्रेक्षावत्सु स्यादिति कुतः पूजा लाभो वा ? किये हए हैं उसमें कोई बाधा करे तो उस निखिल बाधा को न्याय बल से दूर करना, इसतरह तत्वाध्यवसाय संरक्षण का अर्थ है, तत्व निश्चय का संरक्षण बाधा देने वाले पुरुष का मुख जैसा बने वैसा बंद करना नहीं है, अर्थात् अपने पक्ष में प्रतिवादी ने बाधक प्रमाण उपस्थित किया हो तो उसका न्यायपूर्वक निराकरण करना तो ठीक है किन्त निराकरण का मतलब यह नहीं है कि प्रतिवादी का मुख चाहे जैसा बंद करना, ऐसा करने से कोई तत्व निश्चय का संरक्षण नहीं होता । यदि प्रतिवादी का मुख बंद करने से ही इष्ट तत्व सिद्ध होता है तो लाठी चपेटा आदि से भी प्रतिवादी का मुख बंद कर सकते हैं और तत्व संरक्षण कर सकते हैं ? किंतु ऐसा नहीं होता है । कोई कहे कि जल्प और वितंडा से निखिल बाधा का निराकरण हो सकता है सो बात गलत है, जल्प और वितंडा में तो न्यायपूर्वक निराकरण नहीं होता किन्तु छल, और जाति के प्रस्ताव से बाधा का निराकरण करते हैं, इसतरह के निराकरण करने से तो संशय और विपर्यय पैदा होता है। जल्प और वितण्डा में प्रवृत्त हुए पुरुष प्रतिवादी के मुख को बंद करने में ही लगे रहते हैं यदि कदाचित् उनके तत्वअध्यवसाय होवे तो भी प्राश्निक लोगों को संशय या विपर्यय हो जाता है कि क्या इस वैतंडिक को तत्वाध्यवसाय है या नहीं ? अथवा मालूम पड़ता है कि इसे तत्व का निश्चय हुप्रा ही नहीं इत्यादि । बात यह है कि परवादी की जबान बंद कर देना उसे निरुत्तर करना इत्यादि कार्य को करना तो जिसे तत्वाध्यवसाय नहीं हुआ ऐसा पुरुष भी कर सकता है अतः प्राश्निक महाशयों को संदेहादि होवेगे कि तत्वोपप्लववादी के समान यह वादी तत्व निश्चय रहित दिखाई दे रहा इत्यादि । जब इसतरह वादी केवल परवादी को निर्मुख करने में प्रवृत्ति करेगा तो बुद्धिमान पुरुषों में उसकी अप्रसिद्धि ही होवेगी । फिर ख्याति और लाभ कहां से होवेंगे ? अर्थात् नहीं हो सकते । इसप्रकार जो शुरु में हम जैन ने कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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