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जय-पराजयव्यवस्था
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षणी धर्मों पक्षप्रतिपक्षौ । तयोः परिग्रह इत्थंभावनियमः ‘एवंधर्मायं धर्मी नैवंधर्मा' इति च । तत:प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भवविशेषणस्य पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहस्य जल्पवितण्डयोरसम्भवात् सिद्ध वादस्यैव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वं लाभपूजाख्यातिवत् ।।
तत्वस्याध्यवसायो हि निश्चयस्तस्य संरक्षणं न्यायबलान्निखिल बाधकनिराकरणम्, न पुनस्तत्र उनको समझा रहे कि अापके यहां जो वाद आदि का लक्षण किया है उससे सिद्ध होता है कि वाद से ही तत्व संरक्षण होता है, जल्प और वितंडा से नहीं, वितंडा में तो प्रतिपक्ष की स्थापना ही नहीं होती, तथा इन दोनों में सिद्धांत अविरुद्धता भी नहीं, वाद में ऐसा नहीं होता, वाद करने वाले पुरुष अपने अपने पक्ष की स्थापना करते हैं तथा उनका वाद प्रमाण तर्क आदि से युक्त होता है एवं सिद्धांत से अविरुद्ध भी होता है। सभा के मध्य में वादी प्रतिवादी जो अपना अपना पक्ष उपस्थित करते हैं उसके विषय में चर्चा करते हुए प्राचार्य ने कहा है कि जब एक ही पदार्थ के गुण धर्म के बारे में विवाद या मतभेद होता है तब अपनी अपनी मान्यता सिद्ध करने के लिये सभापति के समक्ष वादी प्रतिवादी उपस्थित होकर उस पदार्थ के गुण धर्म के विषय में अपना अपना पक्ष रखते हैं जैसे एक पुरुष को शब्द को नित्य सिद्ध करना है और एक पुरुष को उसी शब्द को अनित्य सिद्ध करना है, पक्ष प्रतिपक्ष दोनों का अधिकरण बही शब्द है । नित्य और अनित्य परस्पर विरुद्ध हैं इसीलिये उन पुरुषों के मध्य में विवाद खड़ा हुआ है यदि अविरुद्ध धर्म होते तो विवाद या विचार करने की जरूरत नहीं होती, तथा ये दोनों धर्म-नित्य अनित्य एक साथ एक वस्तु में मानने की बात आती है तब विवाद पड़ता है तथा उन धर्मों का एक वस्तु में यदि पहले से निश्चय हो चुका है तो भी विवाद नहीं होता अनिश्चित गुण धर्म में हो विवाद होता है, इसप्रकार पक्ष प्रतिपक्ष का स्वरूप भली प्रकार से जानकर ही वादी प्रतिवादी सभा में उपस्थित होते हैं और ऐसे पक्ष प्रतिपक्ष आदि के विषय में जानकार पुरुष ही वाद करके तत्व निश्चय का संरक्षण कर सकते हैं, जल्प और वितंडा में यह सब सम्भव नहीं, क्योंकि न इनमें इतने सुनिश्चित नियम रहते हैं और न इनको करने वाले पुरुष ऐसे क्षमता को धारते हैं । इसप्रकार जैनाचार्य ने उन्हीं योग के सिद्धांत के अनुसार यह सिद्ध किया है कि जल्प और वितंडा से तत्व संरक्षण नहीं होता, अपितु वाद से ही होता है।
'तत्वाध्यवसाय संरक्षण' इस शब्द के अर्थ पर विचार करते हैं-तत्व का अध्यवसाय अर्थात् निश्चय होना उसका संरक्षण करना अर्थात् अपन जो तत्व का निर्णय
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