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________________ ५७८ प्रमेय कमलमार्तण्डे करणाविति, नानाधिकरणौ विचारं न प्रयोजयत उभयो: प्रमाणोपपत्त:; तद्यथा-अनित्या बुद्धिनित्य अात्मेति । अविरुद्धावप्येवं विचारं न प्रयोजयतः, तद्यथा-क्रियावद्रव्यं गुणवच्चेति । एककालाविति, भिन्नकालयोविचाराप्रयोजकत्वं प्रमाणोपपत्तेः, यथा क्रियावद्रव्यं निष्क्रियं च कालभेदे सति । तथाऽ. वसितो विचारं न प्रयोजयतः; निश्चयोत्तरकालं विवादाभावादित्यनवसितो तो निर्दिष्टौ । एवंविशे सिद्ध हो रहते हैं जैसे बुद्धि अनित्य है और आत्मा नित्य है ऐसा किसी ने कहा तो इसमें विचार-विवाद नहीं होता वे नित्य अनित्य तो अपने अपने स्थान में हैं, किन्तु जहां एक ही आधार में दो विशेषों के विषय में विचार चलता हो कि इन दोनों में से यहां कौन होगा । शब्द में एक व्यक्ति तो नित्य धर्म मानता है और एक व्यक्ति अनित्य धर्म, तब विचार प्रवृत्त होगा, पक्ष प्रतिपक्ष रखा जायगा, एक कहेगा शब्द में नित्यत्व है और दूसरा कहेगा शब्द में अनित्यत्व है। यदि वे दो धर्म परस्पर में विरुद्ध न हो तो भी विचार का कोई प्रयोजन नहीं रहता, जैसे द्रव्य क्रियावान होता है और गुणवान भी होता सो क्रिया और गुण का विरोध नहीं होने से यहां विचार की जरूरत नहीं। तथा वे दो धर्म एक काल में विवक्षित हो तो विचार होगा, भिन्नकाल में विचार की आवश्यकता नहीं रहती, भिन्न काल में तो वे धर्म एकाधार में रह सकते हैं जैसे काल भेद से द्रव्य में सक्रियत्व और निष्क्रियत्व रह जाता [ योगमत की अपेक्षा ] है। तथा जिन धर्मों का निश्चय हो चुका है उनमें विचार करने का प्रयोजन नहीं रहता, क्योंकि निश्चय होने के बाद विवाद नहीं होता अतः अनवसित-अनिश्चित धर्मों के विषय में विचार करने के लिये पक्ष प्रतिपक्ष स्थापित किये जाते हैं एक कहता है कि इसप्रकार के धर्म से युक्त ही धर्मी होता है तो दूसरा व्यक्ति-प्रतिवादी कहता है कि नहीं, इस प्रकार के धर्म से युक्त नहीं होता इत्यादि । इसप्रकार प्रमाण तर्क साधन उपलम्भादि विशेषण वाले पक्ष प्रतिपक्ष का ग्रहण जल्प और वितंडा में नहीं होता ऐसा सिद्ध होता है, केवल वाद में ही इसप्रकार के विशेषण वाले पक्षादि होते हैं और वह वाद ही तत्वाध्यवसाय के संरक्षण के लिए होता है [ किया जाता है ] ऐसा सिद्ध हुआ, जिस प्रकार वाद से ख्याति पूजा लाभ की प्राप्ति होती है उसीप्रकार तत्वाध्यवसाय का रक्षण भी होता है ऐसा मानना चाहिए । विशेषार्थ-यौग का कहना है कि वाद से अपने अपने तत्व के निश्चय का रक्षण नहीं हो सकता तत्व का संरक्षण तो जल्प और वितंडा से होता है, प्राचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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