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________________ जय-पराजयव्यवस्था इति । एवं प्रत्यवस्थातुरन्यायवादित्वात्पराजयः । न खलु प्रेक्षावतां तत्त्वपरीक्षायां छलेन प्रत्यवस्थानं युक्तमिति योगाः; तेप्यतत्त्वज्ञाः; यतो यद्यतावतैव जिगीषुनिगृह्यत तहि पत्रवाक्यमनेकार्थं व्याचक्षाणोपि निगृह्यताम् । न चैवम् । यत्र हि पक्षे वादिप्रतिवादिनोविप्रतिपत्त्या प्रवृत्तिस्तत्सिद्ध रेवैकस्य जयोन्यस्य पराजय : न त्वनेकार्थत्वप्रतिपादनमात्रम् । एवं च 'माढयो वै वैधवेयो नवकम्बलत्वाद्देवदत्तवत्' इति प्रयोगे यदि वक्त : 'नवः कम्बलोस्येति, नवास्य कम्बला:' इति चार्थद्वयं 'नवकम्बलः' इति शब्दस्याभिप्रेतं भवति तदा-'कुतोस्य नव कम्बलाः, इति प्रत्यवतिष्ठमानो हेतोरसिद्धतामेवोद्भावयति । अन्यस्तु तदुभयार्थसमर्थनेन तदेकतरार्थसमर्थनेन वा हेतुसिद्धि प्रदर्शयति । नवस्तावदेकः कम्बलोस्य प्रतीतो भवता, मन्येऽप्यष्टौ कम्बला गृहे तिष्ठन्तीत्युभयथा नवकम्बलत्वस्य सिद्ध सिद्धतोद्भावनीया । समय छलपूर्वक प्रतिपादन नहीं करना चाहिये। इसप्रकार वाक् छल के विषय में योग कहते हैं। किन्तु ये लोग वास्तविक वस्तु को नहीं जानते, क्योंकि यदि इसप्रकार वचन का अर्थ बदलकर प्रत्यवस्थान करने वाले प्रतिवादी का निग्रह किया जायगा तो अनेक अर्थ से गूढ़ ऐसे पत्र वाक्य को कहने वाले वादो का भी निग्रह होना चाहिए । किंतु होता तो नहीं, जय पराजय की बात तो ऐसी है कि वादी और प्रतिवादी का विवाद तो स्व स्व पक्ष की सिद्धि में है जब तक उन दोनों में से एक के पक्ष की सिद्धि नहीं होती तब तक एक का जय और एक का पराजय हो नहीं सकता, वचन का व्याघात करने मात्र से-अर्थ को अनेकपने से प्रतिपादन करने मात्र से निग्रह अर्थात् पराजय नहीं होता । इसप्रकार यह निश्चय होता है कि वादी के कहे हुए वचन का दूसरा अर्थ करना गलत नहीं, अब वादी ने यदि अनुमान वाक्य कहा कि “पाढयो वै वैधवेयो नवकंबलत्वात् देवदत्तवत्" यह वैधवेय [विधवा का पुत्र] श्रीमन्त है क्योंकि नवकंबल युक्त है, जैसे देवदत्त, इसमें नवकंबल जो पद है उसके दो अर्थ निकलते हैं नवीन है कंबल जिसका ऐसा यह पुरुष है, एवं इसके पास नौ कंबल हैं, अब इसमें से इसके नौ कंबल कहां हैं ? इसप्रकार प्रतिवादी विवाद करते हुए हेतु की प्रसिद्धता को ही उद्भावित करता है। पश्चात् वादी हेतु के दोनों अर्थों का समर्थन करके अथवा उनमें से किसी एक अर्थ का समर्थन करके निज हेतु को सिद्ध करता है, वह इसप्रकार कहता है कि नव कंबलत्वात् हेतु में स्थित नव शब्द का अर्थ यदि नौ संख्यारूप है तो इस वैधवेय के नौ कंबल हैं एक तो आप साक्षात् देख रहे और अन्य आठ कंबल घर में हैं, अतः नवकम्बलत्वात् हेतु सिद्ध है, इसमें प्रसिद्धता दोष नहीं दे सकते । तथा नव शब्द का नूतन अर्थ भी है क्योंकि इस व्यक्ति का कम्बल नूतन है, इसप्रकार दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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