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________________ ५६० प्रमेयक मलमार्त्तण्डे सौगतसांख्ययोगप्राभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्यभावः एकैकाधिकैः व्याप्तिवत् ।। ५७ ।। यथैव हि सौगतसांख्ययोगप्राभाकरजैमिनीयानां मते प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्त्यभावः प्रमाणैरेकैकाधिकैर्व्याप्तिर्न सिध्यत्यतद्विषयत्वात् तथा प्रकृतमपि । प्रयोगः - यद्यस्याऽविषयो न तत सौगत सांख्य यौग प्राभाकर जैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्य भावः एकैकाधिकैः व्याप्तिवत् ।। ५७ ।। . अर्थ – जिसप्रकार सौगत सांख्य योग प्राभाकर जैमिनी इनके मत में क्रमशः प्रत्यक्ष और अनुमानों द्वारा प्रत्यक्ष अनुमान आगमों द्वारा प्रत्यक्षादि में एक अधिक उपमा द्वारा, प्रत्यक्षादि में एक अधिक प्रर्थापत्ति, और उन्हीं में एक अधिक प्रभाव प्रमाण द्वारा व्याप्ति ज्ञानका विषय ग्रहण नहीं होने से उन मतों की दो तीन आदि प्रमाण संख्या बाधित होती है उसीप्रकार चार्वाक की एक प्रमाण संख्या बाधित होती है, इसका विवरण इसप्रकार है कि चार्वाक एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानता है किन्तु एक प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा उसी चार्वाक का इष्ट सिद्धांत जो परलोक का खंडन करना श्रादि है वह किया नहीं जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय परलोकादि नहीं है प्रत्यक्ष प्रमाण उसको जान नहीं सकता, इसीप्रकार सौगत प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो प्रमाण माने हैं किंतु इन दो प्रमाणों द्वारा तर्क का विषय जो व्याप्ति है [ जहां जहां धूम होता है वहां वहां अग्नि होती है इत्यादि ] उसका ग्रहण नहीं होता प्रत: दो संख्या मानने पर भी इष्ट मतकी सिद्धि नहीं हो सकती । प्रत्यक्ष अनुमान और आगम ऐसे तीन प्रमाण सांख्य मानता है, प्रत्यक्ष अनुमान प्रागम और उपमान ऐसे चार प्रमाण योग [ नैयायिक - वैशेषिक ] मानता है, प्रत्यक्ष अनुमान, आगम, उपमा और अर्थापत्ति ऐसे पांच प्रमाण प्रभाकर मानता है, प्रत्यक्ष अनुमान, प्रागम, उपमा, श्रर्थापत्ति और प्रभाव ऐसे छह प्रमाण जैमिनी [ मीमांसक ] मानता है किन्तु इन प्रमाणों द्वारा व्याप्ति का ग्रहण नहीं होता क्योंकि उन प्रत्यक्षादि छह प्रमाणों में से किसी भी प्रमाण का विषय बिना अनुमान आदि प्रमाणों की सिद्धि हो करते हुए सिद्ध कर चुके हैं, यहां कहने का इष्ट प्रमाण संख्या द्वारा व्याप्तिरूप विषय नहीं होती वैसे ही चार्वाक के एक प्रत्यक्ष व्याप्ति है ही नहीं, व्याप्ति का ग्रहण हुए नहीं सकती ऐसा परोक्ष प्रमाण का वर्णन अभिप्राय यह है कि जैसे बौद्ध प्रादि के ग्रहण नहीं होता अतः उनकी संख्या सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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