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________________ तदाभासस्वरूप विचारः ५५६ प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि संख्याभासम् ॥ ५५ ।। कस्मादित्याह लोकायतिकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य परबुद्धयादेश्वासिद्धः प्रतद्विषयत्वात् ॥ ५६ ॥ कुतोऽसिद्धिरित्याह-अतद्विषयत्वात् । यथा चाध्यक्षस्य परलोकादिनिषेधादिर विषयस्तथा विस्तरतो द्वितीयपरिच्छेदे प्रतिपादितम् । अमुमेवार्थ समर्थयमान : सौगतादिपरिकल्पितां च संख्यां निराकुर्वाणः सौगतेत्याद्याह प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि संख्याभासम् ।।५५।। अर्थ--प्रत्यक्षरूप एक ही प्रमाण है इत्यादि रूप मानना संख्याभास है । लौकायितकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य परबुद्धयादेश्चासिद्ध: अतद् विषयत्वात् ।। ५६ ।। अर्थ-लौकायित जो चार्वाक है वह एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानता है, यह एक प्रमाण संख्या ठीक नहीं है, क्योंकि एक प्रत्यक्ष से परलोक का निषेध करना, पर जीवों में ज्ञानादि को सिद्ध करना इत्यादि कार्य नहीं हो सकता, इसका भी कारण यह है कि प्रत्यक्ष प्रमाण परलोकादि को जानता ही नहीं उस ज्ञान की प्रवृत्ति परलोकादि परोक्ष वस्तु में न होकर केवल घट पट आदि प्रत्यक्ष वस्तु में ही हुआ करती है। चार्वाक एक ही प्रमाण मानते हैं, किन्तु उधर परलोकादि का निषेध करते हैं, सो परलोक नहीं है, सर्वज्ञ नहीं है, इत्यादि विषयों का निषेध करना अनुमानादि के अभाव में कैसे शक्य होगा ? अर्थात् नहीं हो सकता, अतः एक प्रत्यक्ष मात्र को मानना संख्याभास है । प्रत्यक्ष का विषय परलोक आदि पदार्थ नहीं हो सकते प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा परलोक का निषेध करना अशक्य है इत्यादि बातों का खुलासा द्वितीय परिच्छेद में कर दिया है, यहां अधिक नहीं कहते । आगे इसीका समर्थन करते हुए बौद्ध आदि परवादी द्वारा परिकल्पित प्रमाण संख्या का निराकरण करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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