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________________ ५५८ प्रमेयकमलमार्तण्डे विसंवादात् ।। ५४ ।। प्रतिपन्नार्थविचलनं हि विसंवादो विपरीतार्थोपस्थापक प्रमाणावसे यः । स चात्रास्तीत्यागमाभासता। अथेदानी संख्याभासोपदर्शनार्थमाह विसंवादात् ।। ५४ ।। अर्थ-रागी मोही पुरुष के वचन विसंवाद कराते हैं अतः प्रागमाभास है । जो प्रमाण प्रतिपन्न पदार्थ है उससे विचलित होना विसंवाद कहलाता है अर्थात् विपरीत अर्थ को उपस्थित करने वाला प्रमाण ही विसंवादक है, ऐसा विसंवाद रागी मोही पुरुषों के वचन से उत्पन्न हुए ज्ञान में पाया जाता है अतः ऐसे वचन से उत्पन्न हुआ ज्ञान आगमाभासरूप सिद्ध होता है । भावार्थ-"प्राप्तवचनादि निबंधनमर्थज्ञानमागमः" प्राप्त पुरुष सर्वज्ञ वीतरागी पुरुषों के वचन के निमित्त से अर्थात् उनके वचनों को सुनकर या पढ़कर जो पदार्थ का वास्तविक ज्ञान होता है उसको आगम प्रमाण कहते हैं ऐसा पागम प्रमाण का लक्षण करते हुए तीसरे परिच्छेद में [ दूसरे भाग में ] कहा था, उस लक्षण से विपरीत लक्षणवाला जो ज्ञान है वह सब आगमाभास है, जो प्राप्त पुरुष नहीं है राग द्वेष अथवा मोहयुक्त है उसके वचन प्रामाणिक नहीं होने से उन वचनों को सुनकर होने वाला ज्ञान भी प्रामाणिक नहीं होता, रागी पुरुष मनोरंजनादि के लिये जो वचन बोलता है उससे जो ज्ञान होता है वह आगमाभास है तथा द्वेषी पुरुष द्वेषवश जो कुछ कहता है उससे जो ज्ञान होता है वह आगमाभास है, मोह का अर्थ मिथ्यात्व है मिथ्यात्व के उदय से आक्रान्त पुरुष के वचन तो सर्वथा विपरीत ज्ञानके कारण होने से आगमाभास ही हैं, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध, चार्वाक, मीमांसक आदि जितने भी मत हैं उन मतों के जो वचन अर्थात् ग्रन्थ हैं वे सभी विपरोत ज्ञान के कारण होने से प्रागमाभास कहे जाते हैं। अब प्रमाण की संख्या सम्बन्धी जो विपरीतता है अर्थात प्रमाण को संख्या कम या अधिकरूप से मानना संख्याभास है ऐसा कहते हैं - For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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