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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे फलं स्यात् ; इत्यप्यसुन्दरम् ; अज्ञाननिवृत्तिलक्षणफलेनास्य व्यवधानसम्भवती भिन्नत्वाविरोधात् । प्रत आह-हानोपादानोपेक्षाश्च प्रमाणाद्भिन्न फलम् । अत्रापि कथञ्चिद्भदो द्रष्टव्यः। सर्वथा भेदे प्रमाणफलव्यवहारविरोधात् । ममुमेवार्थ स्पष्टयन् यः प्रमिमीते इत्यादिना लौकिकेतरप्रतिपत्तिप्रसिद्धां प्रतीति दर्शयति यः प्रमिमोते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीतेः ॥५॥३॥ यः प्रतिपत्ता प्रमिमीते स्वार्थग्रहणपरिणामेन परिणमते स एव निवृत्ताज्ञानः स्वविषये व्यामोहविरहितो जहात्यभिप्रेतप्रयोजनाप्रसाधकमर्थम्, तत्प्रसाधकं त्वादत्त उभय प्रयोजनाऽप्रसाधकं तूपेक्षणीयमुपेक्षते चेति प्रतीते: प्रमाणफलयोः कथञ्चिद्भदाभेदव्यवस्था प्रतिपत्तव्या। समाधान-यह कहना गलत है, प्रमाण से प्रथम तो अज्ञान निवृत्तिरूप फल होता है अनन्तर हानादि फल होते हैं, अज्ञान निवृत्तिरूप फल से व्यवधानित होकर ही हानोपादानादि फल उत्पन्न होते हैं अतः इन हानादिको प्रमाण से कथंचित् भिन्न मानने में कोई विरोध नहीं पाता । इसीलिये प्रमाण से हान, उपादान और उपेक्षा फल भिन्न है ऐसा कहा है। यह भिन्नता कथंचित् है, यदि हानादि फल को सर्वथा भिन्न मानेंगे तो यह प्रमाण का फल है इसप्रकार से कह नहीं सकेंगे। अब आगे प्रमाण के फल के विषय में इसी भेदाभेद अर्थ को स्पष्ट करते हुए य: प्रमिमीते इत्यादि सूत्र द्वारा लौकिक तथा शास्त्रज्ञ में प्रसिद्ध ऐसी प्रतीति को दिखलाते हैं-यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीतेः ।।५।३।। सूत्रार्थ-जो जानता है वही अज्ञान रहित होता है एवं हेयको छोडता है. उपादेय को ग्रहण करता है, उपेक्षणीय पदार्थ में मध्यस्थ होता है इसप्रकार सभी को प्रतिभासित होता है। जो प्रमाता जानता है अर्थात् स्व पर ग्रहणरूप परिणाम से परिणमता है उसीका अज्ञान दूर होता है, व्यामोह [ संशयादि ] से रहित होता है, वही प्रमाता पुरुष अपने इच्छित प्रयोजन को सिद्ध नहीं करने वाले पदार्थ को छोड़ देता है और प्रयोजन को सिद्ध करने वाले को ग्रहण करता है जो न प्रयोजन का साधक है और न असाधक है अर्थात् उपेक्षणीय है उस पदार्थ की उपेक्षा कर देता है, इस तरह तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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