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________________ ५०७ नन्वेवं प्रमातृप्रमाणफलानां भेदाभावात्प्रतीतिप्रसिद्धस्तद्वयवस्थाविलोपः स्यात्; तदसाम्प्रतम् ; कथञ्चिल्लक्षणभेदतस्तेषां भेदात् । श्रात्मनो हि पदार्थपरिच्छित्तो साधकतमत्वेन व्याप्रियमाणं स्वरूपं प्रमाणं निर्व्यापारम्, व्यापारं तु क्रियोच्यते, स्वातन्त्र्येण पुनर्व्याप्रियमाणं प्रमाता इति कथञ्चित्तद्भ ेद: । प्राक्तनपर्यायविशिष्टस्य कथञ्चिदवस्थितस्यैव बोधस्य परिच्छित्तिविशेषरूपतयोत्पत्तेरभेद इति । साधनभेदाच्च तद्भ ेदः; करणसाधनं हि प्रमाणं साधकतमस्वभावम्, कर्तृ साधनस्तु प्रमाता फलस्वरूपविचारः प्रकार से प्रभाता की प्रक्रिया प्रतीति में आती है, इसलिये प्रमाण से प्रमाण का फल कथंचित् भिन्न और कथंचित् प्रभिन्न होता है । शंका- इसतरह प्रमाण के विषय में मानेंगे तो प्रमाता, प्रमाण और फल इनमें कुछ भी भेद नहीं रहेगा, फिर यह जगत प्रसिद्ध प्रमाता आदि का व्यवहार समाप्त हो जायगा । समाधान - यह शंका निर्मूल है, प्रमाता आदि में लक्षण भिन्न भिन्न होने से कथंचित् भेद माना है । पदार्थ के जानने में साधकतमत्व - करणरूप से परिणमित होता आत्मा का जो स्वरूप है उसे प्रमाण कहते हैं जो कि निर्व्यापाररूप है, तथा जो व्यापार है जानन क्रिया है वह फल है । स्वतन्त्ररूप से जानना क्रिया में प्रवृत्त हुआ श्रात्मा प्रमाता है, इसतरह प्रमाण ग्रादि में कथंचित् भेद माना गया है । अभिप्राय यह है कि प्रात्मा प्रमाता कहलाता है जो कर्त्ता है, आत्मा में ज्ञान है वह प्रमाण है, और जानना फल है | कभी कभी प्रमाता और प्रमाण इनको भिन्न न करके प्रमाता जानता है ऐसा भी कहते हैं क्योंकि प्रमाता प्रात्मा और प्रमाण ज्ञान ये दोनों एक ही द्रव्य हैं केवल संज्ञा, लक्षणादि की अपेक्षा भेद है । इसतरह कर्त्ता और करण को भेद करके तथा न करके कथन करते हैं, "प्रमाता घटं जानाति" यहां पर कर्त्ता करण दोनों को पृथक् नहीं किया, प्रमाता प्रमाणेन घटं जानाति इसतरह की प्रतीति या कथन करने पर आत्मा के ज्ञान को पृथक् करके प्रात्मा कर्त्ता और ज्ञान करण बनता है । प्राक्तन पर्याय से विशिष्ट तथा कथंचित् श्रवस्थित ऐसा जो ज्ञान है वही परिच्छित्ति विशेष अर्थात् फलरूप से उत्पन्न होता है अतः प्रमाण और फल में प्रभेद भी स्वीकार किया है । कर्तृ साधन आदि की अपेक्षा भी प्रमाता प्रादि में भेद होता है साधकतम स्वभाव रूप करण साधन होता है इसमें प्रमाण करण बनता है " प्रमीयते येन इति प्रमाणं” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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