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फलस्वरूपविचारः
५०५ न चानयोरभेदे कार्यकारणभावो विरुध्यते; अभेदस्य तद्भावाविरोधकत्वाज्जीवसुखादिवत् । साधकतमस्वभावं हि प्रमाणम् स्वपररूपयोप्तिलक्षणामज्ञाननिवृत्ति निर्वतयति तान्येनास्या निर्वर्तनाभावात् । साधकतमस्वभावत्वं चास्य स्वपरग्रहणव्यापार एव तद्ग्रहणाभिमुख्यलक्षण।। तद्धि स्वकारणकलापादुपजायमानं स्वपरग्रहणव्यापारलक्षणोपयोगरूपं सत्स्वार्थव्यवसायरूपतया परिणमते इत्यभेदेऽप्यनयो: कार्यकारणभावाऽविरोध: ।
नन्वेवमज्ञाननिवृत्तिरूपतयेव हानादिरूपतयाप्यस्य परिणमनसम्भवात् तदप्यस्याऽभिन्नमेव
होना व्यतिरेक है-हेतु का व्यतिरेक धर्म इसतरह उप हेतु के अन्वय-व्यतिरेकरूप दो धर्म न मानकर अभेद स्वीकारना होगा ।
प्रमाण और अज्ञान निवृत्तिरूप प्रमाण का फल इनमें कथंचित् अभेद मानने पर भी कार्य कारणपना विरुद्ध नहीं है अर्थात् प्रमाण कारण है और अज्ञान निवृत्ति उसका कार्य है ऐसा कार्य कारणभाव अभेद पक्ष में भी [ प्रमाण से उसके फलको अभिन्न मानने पर भी ] विरुद्ध नहीं पड़ता, अभेद का तद्भाव के साथ कोई विरोधकपना नहीं है जिसप्रकार जीव और सुख में अभेद है फिर भी जीवका कार्य सुख है ऐसा कार्यकारणभाव मानते हैं । पदार्थों को जानने के लिये साधकतम स्वभाव वाला प्रमाण स्व परको जानना रूप ज्ञप्ति लक्षण वाली अज्ञान निवृत्ति को करता है, इस कार्य में अन्य सन्निकर्षादि समर्थ नहीं है अर्थात् अज्ञान निवृत्ति को करने में सन्निकर्षादि को शक्ति नहीं होती इस प्रमाण का साधकतम स्वभाव तो यही है कि स्व और परको ग्रहण करने का व्यापार-स्व परको ग्रहण करने में अभिमुख होना। इसप्रकार के स्वभाव वाला प्रमाण अपने कारण सामग्री से उत्पन्न होता हुआ स्व परको ग्रहण करना रूप व्यापार लक्षण वाले उपयोगरूप परिणमन करता है जो कि परिणमन स्व परका निश्चयात्मक स्वरूप होता है [संशय विपर्यय अनध्यवसाय रहित सविकल्परूप से स्व और परका निश्चय करता है ], इसप्रकार प्रमाण और उसका फल इनमें कार्य कारण भाव का अविरोध है।
___ शंका-इस तरह पाप प्रज्ञान निवृत्ति रूप फल को प्रमाण से अभिन्न मानते हैं तो हान उपादान और उपेक्षारूप फल को भी प्रमाण से अभिन्न मानना चाहिये ? क्योंकि हानोपादानादिरूप से भी प्रमाण का परिणमन [कार्य] होता है।
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