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________________ ४६३ समवायपदार्थ विचार: वशात् प्रयोजनवशाच्च द्रव्यादिषट्कव्यवस्था; तर्हि तत एव प्रमाणादिषोडशव्यवस्थाप्यस्तु विशेषा कर पाता । और जो तत्व प्रसद्भावरूप है उस पर किसी के कहने से या स्वयं ही विश्वास करता सो यहां वैशेषिक के षट् पदार्थवाद का विचार चल रहा था, श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने अपनी जैन स्याद्वाद पद्धति एवं पूर्व तर्क तथा युक्ति द्वारा वैशेषिक को समझाया है कि यह पदार्थ संख्या इसलिये असत् है कि इनका लक्षण सदोष है, द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष एवं समवाय ये छह पदार्थं प्रापने माने किंतु इनका स्वरूप सिद्ध नहीं होता, द्रव्य का लक्षण - " गुणवत् क्रियावत् समवायी कारणं द्रव्यम् " इसप्रकार है, किंतु यह घटित नहीं होता क्योंकि द्रव्य को गुरण से सर्वथा भिन्न मानकर समवाय द्वारा उसका सम्बन्ध होना बताते हैं सो भिन्न गुण द्वारा द्रव्य गुणी होता है तो हर किसी द्रव्य में हर कोई गुरण सम्बद्ध हो सकता है, जो किसी को इष्ट नहीं । द्रव्यों की नौ संख्या भी प्रसिद्ध है । गुण का लक्षण जो द्रव्य के आश्रित हो, स्वयं गुण रहित हो, संयोग विभाग का निरपेक्ष कारण न हो वह गुण कहलाता है किंतु यह लक्षण इसलिये असिद्ध है कि गुण अपने गुणी से पहले भिन्न रहता है और फिर समवाय से सम्बद्ध होता है । संयोग और विभाग को गुण मानना तो सर्वथा हास्यास्पद है । कर्म नामा तीसरा पदार्थ विचित्र है, कर्म अर्थात् क्रिया, क्रिया कोई पृथक् पदार्थ नहीं है, क्रियाशील पदार्थ ही है, सामान्य - " अनुगत ज्ञान कारणं सामान्यम्" जो प्रनुगत ज्ञान [गौरयं गौरयं इति ] को कराता है वह सामान्य नामा पदार्थ है यह भी द्रव्य से पृथक् वस्तु नहीं है । द्रव्य का अपनी जाति से साधारण स्वरूप होता है वही सामान्य कहलाता है, सामान्य को आकाशवत् सर्व व्यापक सर्वथा एक मानना भी प्रतीति से बाधित है । विशेष पदार्थ विशिष्टपने का प्रतिभास कराता है ऐसा विशेष का लक्षण भी असंगत है, प्रत्येक पदार्थ की विशेषता उसीमें स्वयं है उसके लिये ऊपर से विशेष का संयोग कराने की आवश्यकता नहीं । समवाय पदार्थ -"प्रयुत सिद्धानामाधाराधेय भूतानां इदं प्रत्यय हेतुः यः सम्बन्धः सः समवायः " प्रयुत सिद्ध और आधेय आधार भूत पदार्थों में जो इहेदं - यहां यह है इस तरह का ज्ञान कराता है उस सम्बन्ध को समवाय कहते हैं । यह समवाय सम्बन्ध किसी प्रकार से सिद्ध नहीं होता । द्रव्यों को सम्बद्ध कराने के लिये अथवा द्रव्य में गुणों को सम्बन्धित कराने के लिये इस समवाय नामा गोंद की कोई भी आवश्यकता नहीं पड़ती, वे स्वयं इसीरूप सिद्ध हैं । इन सब " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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