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________________ ४६२ प्रमेय कमल मार्तण्डे पदार्थषोडशकस्य षट्स्वेवान्तर्भावानातोधिकपदार्थव्यवस्थेत्यभिधातव्यम् ; द्रव्यादीनामपि षण्णां प्रमाणप्रमेयरूपपदार्थद्वयेऽन्तर्भावात्पदार्थषट्कस्याप्यनुपपत्तेः । अथ तदन्तर्भावेप्यवान्तर विभिन्नलक्षण जैन-तो फिर इसी अवांतर विभिन्न लक्षण के कारण तथा प्रयोजन के कारण प्रमाण प्रादि सोलह पदार्थों को व्यवस्थित किया जाय दोनों जगह कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् विभिन्न लक्षण आदि कारण से पदार्थों की छह संख्या तो व्यवस्थित हो सके और इन्हीं विभिन्न लक्षणादि कारण से पदार्थों की सोलह संख्या व्यवस्थित नहीं हो सके ऐसी विशेषता देखने में नहीं आती, किंतु नैयायिक की पदार्थ संख्या भी वैशेषिक के समान सिद्ध नहीं हो पाती, नैयायिक ने जिस तरह का प्रमाण प्रमेय आदि का स्वरूप प्रतिपादन किया है वह यथास्थान निषिद्ध हो चुका है [ आगे जय पराजय नामा प्रकरण भी इन सोलह पदार्थों में से किसी किसी का प्रतिषेध किया जायगा] नैयायिक ने पदार्थों की संख्या सोलह मानी है किन्तु उनमें भी संपूर्ण पदार्थ नहीं आते क्योंकि इन प्रमाण प्रादि सोलह पदार्थों से अन्य विपर्यय तथा अनध्यवसाय पदार्थ शेष रह जाते हैं । अंत में यह निश्चय हुआ कि वैशेषिक के अभिमत द्रव्यादि छह पदार्थ एवं नैयायिक के अभिमत सोलह पदार्थ असिद्ध स्वरूप वाले हैं। इनका लक्षण कथमपि प्रमाणित नहीं होता । विशेषार्थ-संपूर्ण विश्व में दृश्यमान अदृश्यमान पदार्थ ऐसे तो अनंत हैं किंतु इनकी जाति की अपेक्षा पृथक् पृथक् लक्षण की अपेक्षा कितने भेद हैं इस बात को जैन के अतिरिक्त कोई भी परवादी बता नहीं सकते, क्योंकि इनका मत इनके ग्रन्थ अल्प ज्ञान पर आधारित हैं, अल्पज्ञ पुरुष अपनी बुद्धि अनुसार जैसा जितना जानने में आया उतना ही कथन एवं स्वयं समझ सकता है फिर उसमें मिथ्यात्व का बहुत बड़ा पुट रहता है अतः वास्तविक तत्व को किसी सम्यग्ज्ञानी द्वारा समझाने बताने पर भी वह अपने हटाग्रह को नहीं छोड़ता या नहीं छोड़ पाता मिच्छाइट्ठो जीवो उवइट्ठपवयणं तु ण सद्दहदि । सद्दहदि प्रसब्भावं उवइट्ठ वा अणु वइट्ठ ।।१।। अर्थात् मिथ्यात्व से दूषित-अनादि अविद्या के वासना से संयुक्त व्यक्ति जिनेन्द्र प्रणीत प्रवचन-तत्व प्रतिपादन को स्वीकार नहीं करता, उन पर विश्वास नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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