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________________ ૪૬ प्रमेयकमलमार्तण्डे त्मवृत्तितया समवायसमवायिनोरतिष्ठन् कथं द्विष्ठो भवेत् ? षोढा सम्बन्धवादित्वव्याघातश्च । यदि चाऽदृष्टेन समवायः सम्बध्यते; तहि गुणगुण्यादयोध्यत एव सम्बद्धा भविष्यन्तीत्यलं समवायादिकल्पनया । न चादृष्टोप्यसम्बद्धः समवायसम्बन्धहेतुः प्रतिप्रसङ्गात् । सम्बद्धश्चेत् ; कुतोस्य सम्बन्धः ? समवायाच्चेत्; अन्योन्यसंश्रयः । अन्यतश्चेत् ; अभ्युपगमव्याघातः । तन्न सम्बद्धः समवाय।। नाप्यसम्बद्धः; 'षण्णामाश्रितत्वम्' इति विरोधानुषंगात् । कथं चासम्बद्धस्य सम्बन्धरूपतार्थान्तरवत् ? सम्बन्धबुद्धिहेतुत्वाच्चेत् ; महेश्वरादेरपि तत्प्रसंगः । कथं चासम्बद्धोसो समवायिनो: हैं-संबंध द्विष्ठ-दो में रहने वाला होता है ऐसा आपका सिद्धान्त है और अदृष्ट तो मात्र आत्मा में रहता है, वह समवाय और समवायी में नहीं रहता फिर द्विष्ठ किस प्रकार कहलायेगा अर्थात् नहीं कहला सकता तथा आपके यहां संबंध छः प्रकार का ही माना है, उन समवाय, संयोग इत्यादि छहों संबंधों में अदृष्ट नामा कोई भी संबंध नहीं है । अतः अदृष्ट नाम का संबंध मानेंगे तो संबंध के छह संख्या का व्याघात होगा। दूसरी बात यह है कि यदि अदृष्ट द्वारा समवाय समवायी में संबंध को प्राप्त होता है तो गुण गुणी आदि भी अदृष्ट द्वारा संबद्ध होवेंगे। फिर तो समवाय आदि संबंधों की कल्पना करना निष्प्रयोजन है तथा अदृष्ट भी स्वयं असंबद्ध रहकर समवाय के संबंध का हेतु नहीं हो सकता, अन्यथा अतिप्रसंग पाता है । यदि अदृष्ट संबद्ध होकर समवाय के संबंध का हेतु है ऐसा माने तो इस अदृष्ट का किससे संबंध हुमा अर्थात् अदृष्ट संबद्ध है तो किस संबंध से संबद्ध हुअा है ? समवाय से संबद्ध है ऐसा कहे तो अन्योन्याश्रय दोष आता है-समवाय के सिद्ध होने पर समवाय द्वारा अदृष्ट का संबंधपना सिद्ध होगा और उसके सिद्ध होने पर संबद्ध अदृष्ट का समवाय हेतुत्व सिद्ध होगा । अदृष्ट जो समवाय से संबद्ध हुआ है वह किसी अन्य संबंध से हुअा है ऐसा कहने पर तो तुम्हारो स्वत: की मान्यता में बाधा आती है, क्योंकि तुम्हारा सिद्धांत है कि समवाय किसी के द्वारा संबद्ध नहीं होता वह स्वतः ही संबद्ध होता है । इसप्रकार समवायी में समवाय पर से संबद्ध होता है ऐसा कहना खण्डित होता है । समवायी में समवाय असंबद्ध है, संबद्ध नहीं ऐसा कहना भी दोष युक्त है, "षण्णा माश्रितत्वम्" द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय ये छहों पदार्थ आश्रित रहते हैं-संबद्ध रहते हैं ऐसा आपके प्रशस्त पाद भाष्य नामा ग्रन्थ में लिखा है उसमें बाधा पायेगी । तथा यह भी बात है कि यदि समवाय समवायी से असंबद्ध है तो उसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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