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________________ समवायपदार्थविचारः ४८५ समवाये तदनुपपत्तेः, पदार्थ त्रयवृत्तित्वात्तस्य । नापि विशेषः; विशेषाणां नित्यद्रव्याश्रितत्वात् । अनित्यद्रव्ये चास्योपलम्भात् समवाये चाभावानुषङ्गात् । नापिसमवाय : युगपदनेकसमवायिविशेषणत्वे चास्यानेकत्वप्राप्तिः । यदिह युगपदनेकार्थविशेषणं तदने प्रतिपन्नम् यथा दण्डकुण्डलादि, तथा च समवायः, तस्मादनेक इति । न च सत्त्वादिनाऽनेकान्तः; तस्यानेकस्वभावत्वप्रसाधनात् । तन्न विशेषरणभावेनाप्यसौ सम्बद्धः । नाप्यऽदृष्टेन; अस्य सम्बन्ध रूपत्वासम्भवात् । सम्बन्धो हि द्विष्ठो भवताभ्युपगतः, प्रदृष्टश्चा [समवाय किसी का विशेषण नहीं बन सकेगा ] इसका कारण भी यह है कि सामान्य तीन पदार्थों में-द्रव्य, गुण और कर्म में रहता है समवाय आदि में नहीं रहता ऐसा आपका सिद्धांत है। विशेष पदार्थ विशेषण भाव रूप होता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, इसका कारण यह है कि विशेष नामा पदार्थ केवल नित्य द्रव्यों के प्राश्रित रहते हैं ऐसा आपने माना है। और यह विशेषण भाव तो अनित्य द्रव्य में उपलब्ध होता है। तथा विशेषण भाव यदि विशेष पदार्थ रूप है तो समवाय में विशेष भाव का अभाव ठहरेगा। विशेषण भाव समवाय रूप है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि एक साथ अनेक समवायो द्रव्यों में विशेषण भाव देखे जाते हैं अतः समवाय द्वारा युगपत् अनेक द्रव्यों में विशेषण भाव स्वीकार करने पर समवाय के अनेकपना प्राप्त होगा। अनुमान प्रसिद्ध बात है कि-जो एक साथ अनेक पदार्थों का विशेषण होता है वह अनेक संख्यारूप ही होता है, जैसे दण्ड, कुण्डल इत्यादि विशेषण एक साथ अनेक देवदत्तादि पुरुषों के विशेषण बनते हैं अतः वे अनेक हुप्रा करते हैं, समवाय भो युगपत् अनेकों का विशेषण है अतः अनेक है। यह कथन सत्त्व आदि के साथ व्यभिचरित भी नहीं होता अर्थात् सत्त्व एक रूप होकर भी अनेकों का विशेषण बनता है अतः जो अनेकों का विशेषण है वह अनेक ही है ऐसा हेतु अनेकांतिक होगा ऐसा वैशेषिक कहे तो वह भी ठीक नहीं क्योंकि हम जैन ने सत्त्वादि को भी अनेक स्वभाव रूप माना है एवं सिद्ध किया है [ सामान्य विचार प्रकरण में ] इसप्रकार विशेषण भाव से समवाय का स्वसमवायो में संबंध होता है ऐसा तीसरा पक्ष सिद्ध नहीं होता। चौथा विकल्प अदृष्ट का है-प्रदृष्ट द्वारा समवाय का स्वसमवायी में संबंध होता है ऐसा कहना भी प्रसिद्ध है, क्योंकि अदृष्ट संबंध रूप नहीं है। अब यही बताते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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