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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
श्रयः - समवायस्य नियमसिद्धो हि ततो विशेषणभावस्य नियमसिद्धि:, तत्सिद्धेश्च समवायस्य तत्सिद्धि
रिति ।
किञ्च, श्रयं विशेषणभावः षट्पदार्थेभ्यो भिन्नः प्रभिन्नो वा ? भिन्नश्चेत्; किं भावरूपः, श्रभावरूपो वा ? न तावद्भावरूप:; 'षडेव पदार्था:' इति नियमविरोधात् । नाप्यभावरूप:; श्रनभ्युपगमात् । अभेदेपि न तावद्द्रव्यम् ; गुणाश्रितत्वाभावप्रसङ्गात् । श्रत एव न गुणोपि । नापि कर्म; कर्माश्रितत्वाभावानुषङ्गात् । "अकर्म कर्म " [ ] इत्यभिधानात् । नापि सामान्यम्;
तरह कर सकते हैं ? समवाय से नियम बन जायगा ऐसा कहो तो अन्योन्याश्रय होगासमवाय का नियम सिद्ध होवे तो उससे विशेषण भाव का नियम सिद्ध होवे, और विशेषण भाव जब सिद्ध होवे तब समवाय का नियम सिद्ध होवे कि इसी समवायी में समवाय है । इस तरह दोनों असिद्ध होते हैं ।
दूसरी बात यह है कि आप वैशेषिक के छहों पदार्थों से ( द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ) यह विशेषण भाव भिन्न है या अभिन्न है ? भिन्न है तो भाव रूप है अथवा अभावरूप है ? भावरूप भिन्न विशेषण भाव हो नहीं सकता, क्योंकि इसतरह विशेषण भाव को पृथक् सद्भावरूप पदार्थ मानेंगे तो छह पदार्थों के नियम में विरोध आता है । विशेषण भाव प्रभावरूप है ऐसा कहना भी अशक्य है क्योंकि आपने विशेषण भाव को प्रभावरूप नहीं माना। अब दूसरे विकल्प पर सोचें कि छह पदार्थों से विशेषण भाव प्रभिन्न है, सो इसका अर्थ तो यही होगा कि छहों पदार्थों में से कोई एक पदार्थ विशेषण भावरूप है ? अव यदि द्रव्य को विशेषण भावरूप माना जाय तो ठीक नहीं रहता, क्योंकि द्रव्य विशेषण भावरूप बन जाने से उसमें गुण का पना नहीं रहेगा, जो द्रव्य होता है वही गुण का आश्रयभूत होता है, और द्रव्य तो विशेषण भाव बन चुका है. गुण विशेषण रूप है, ऐसे पक्ष में भी वही पूर्वोक्त दोष [ गुणों के आश्रितपने का प्रभाव ] आता है, को प्राप्त हुआ है उसमें प्रश्रितपने का प्रभाव ही रहेगा । कर्म विशेषण भाव रूप है ऐसा मानना भी अशक्य है, क्योंकि कर्म यदि विशेषण भाव बना तो उसमें कर्म के आश्रितत्त्व का प्रभाव होगा । कर्म स्वयं कर्म रूप होता है ऐसा वचन है । सामान्य नाम का पदार्थ विशेषण भाव को प्राप्त होता है ऐसा कहना भी असंभव है, क्योंकि सामान्य से विशेषण भाव अभिन्न है तो समवाय में विशेषण भाव का अभाव होगा
क्योंकि गुण विशेषण भाव
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