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________________ समवायपदार्थविचारः ४८७ सम्बन्धबुद्धिनिबन्धनम् ? न ह्यगुल्योः संयोगो घटपटयोरप्रवर्त्तमानस्तयोः सम्बन्धबुद्धिनिबन्धनं दृष्टः। तथा, 'इहात्मनि ज्ञानमित्यादिसम्बन्धबुद्धिर्न सम्बन्ध्यऽसम्बद्धसम्बन्धपूर्विका सम्बन्धबुद्धित्वात् दण्डपुरुषसम्बन्धबुद्धिवत्' इत्यनुमानविरोधश्च । किञ्च, अयं समवाय : समवायिनोः परिकल्प्यते, असमवायिनोर्वा ? यद्यसमवायिनोः; घटसंबंधरूप कैसे मान सकते हैं ? वह तो भिन्न पदार्थ के समान असंबंध रूप ही कहलायेगा। वैशेषिक-समवाय संबंध के ज्ञान का हेतु है अतः उसे संबंधरूप मानते हैं ? जैन-इसतरह मानेंगे तो महेश्वर आदि को भी संबंध रूप मानना पड़ेगा। क्योंकि संबंध ज्ञान के हेतु महेश्वरादि भी माने गये हैं। दूसरी बात यह है कि-जब समवाय असंबद्ध है तब "दो समवायी द्रव्यों का संबंध है" इसतरह संबंध का ज्ञान किस प्रकार करा सकता है ? सम्बन्ध जिसमें स्वयं सम्बद्ध नहीं हुआ है वह उसके सम्बन्ध का ज्ञान नहीं करा सकता, दो अंगुली का संयोग घट और पट में नहीं रहता हुग्रा उन में सम्बन्ध ज्ञान को कराने में हेतु नहीं होता। कहने का अभिप्राय यह है कि-हमारे हाथ की दो अंगुलियां परस्पर में मिलने पर इनका संयोग है ऐसा ज्ञान उन अंगुलियों में तो होता है किन्तु जो अन्य घट और पट हैं जिनमें उक्त अंगुलि संयोग नहीं है वह उन घटादि में ये परस्पर सम्बद्ध हैं, "इन दोनों का संयोग है" इस तरह का सम्बन्ध ज्ञान नहीं करा सकते, इसीप्रकार समवायो द्रव्यों में सम्बद्ध नहीं हा समवाय "ये समवायी द्रव्य हैं" ऐसा सम्बन्ध ज्ञान उन समवायी द्रव्यों में नहीं करा सकता । असंबद्ध समवाय से सम्बन्ध का ज्ञान होता है ऐसा मानना अनुमान प्रमाण से बाधित भी होता है, अब उसी अनुमान को बताते हैं-"यहां आत्मा में ज्ञान है" इस प्रकार की सम्बन्ध बुद्धि सम्बन्धी द्रव्य में असम्बद्ध सम्बन्ध के हेतु से नहीं हुआ करतो, क्योंकि वह सम्बन्ध बुद्धि स्वरूप है, जिस तरह दण्ड और पुरुष में होने वाली सम्बन्ध बुद्धि सम्बन्धी में असम्बद्ध सम्बन्ध द्वारा नहीं होती, इस अनुमान से यह सिद्ध होता है कि सम्बन्ध का ज्ञान कराने के लिये समवाय को समवायी में सम्बद्ध होना पड़ेगा, अन्यथा वह सम्बन्ध ज्ञान का हेतु नहीं बन सकता। तथा यह समवाय नामका पदार्थ दो समवायो द्रव्यों में कल्पित किया जाता है या असमवायी द्रव्यों में कल्पित किया जाता है ? असमवायी द्रव्यों में कहो तो घट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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