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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे ४८२ न ते स्वतः सम्बन्धाः यथा घटादयः, न चायं न स्वतः सम्बन्धः, तस्मात्सम्बन्धान्तरं नापेक्षते इति ; तदपि मनोरथमात्रम् ; हेतोरसिद्धेः । न हि समवायस्य स्वरूपासिद्धौ स्वतः सम्बन्धत्वं तत्र सिध्यति । संयोगेनानेकान्ताच्च स हि स्वतः सम्बन्ध: सम्बन्धान्तरं चापेक्षते । न हि स्वतोऽसम्बन्धस्वभावत्वे संयोगादेः परतस्तद्य क्तम्; प्रतिप्रसङ्गात् । घटादीनां च सम्बन्धित्वान्न परतोपि सम्बन्धत्वम् । इत्ययुक्तमुक्तम्–'न ते स्वत:सम्बन्धा:' इति । तन्नास्य स्वतः सम्बन्धो युक्तः । परतश्च कि संयोगात्, समवायान्तरात्, विशेषरणभावात्, प्रदृष्टाद्वा ? न तावत्संयोगात्; तस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रयत्वात्, समवायस्य चाद्रव्यत्वात् । नापि समवायान्तरात्; तस्यैकरूपतयाभ्युपगमात्, “तत्त्वं भावेन” व्याख्यातम् [ वैशे० सू० ७।२।२८ ] इत्यभिधानात् । वे स्वतः सम्बन्धस्वरूप नहीं हुआ करते, जैसे घट, गृह आदि पदार्थ सम्बन्धांतर की अपेक्षा रखने वाले होने से स्वतः सम्बन्धरूप नहीं हैं, समवाय स्वतः सम्बन्धरूप न हो सो बात नहीं अतः यह सम्बन्धान्तर की अपेक्षा नहीं रखता है । इत्यादि कहना मनोरथ मात्र । इसमें स्वतः सम्बन्धत्वात् हेतु प्रसिद्ध है, आगे यही बताते हैं - समवाय का स्वरूप जब तक सिद्ध नहीं होता तब तक उसमें स्वतः सम्बन्धपना सिद्ध नहीं होता है । श्रतः समवाय स्वतः सम्बन्धरूप है ऐसा कहना स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास दोष युक्त है । तथा स्वतः सम्बन्धत्व हेतु संयोग के साथ अनैकान्तिक भी होता है क्योंकि संयोग स्वतः सम्बन्धरूप भी है और सम्बन्धान्तर की अपेक्षा भी रखता है । संयोग आदि में स्वत: सम्बन्धपना न होकर परसे सम्बन्धपना आता है ऐसा आपका कहना है किन्तु यह युक्ति युक्त नहीं है, क्योंकि संयोगादि के स्वत: असम्बन्ध स्वभाव मानकर परसे सम्बन्धपना स्वीकार करना भी प्रतिप्रसङ्ग आने से युक्त नहीं है । तथा घटादि पदार्थ संबंधी रूप होने से उनके सम्बन्धपना भी अशक्य है । अतः वे पदार्थ स्वतः सम्बन्धरूप नहीं इत्यादि पूर्वोक्त कथन प्रयुक्त है । इसप्रकार समवाय का स्वतः संबंधपना प्रसिद्ध हुआ । समवाय में सम्बन्धपना परसे होता है ऐसा पक्ष माना जाय तो प्रश्न होते हैं कि परसे सम्बन्धपना है तो संयोग से या समवायान्तर से, अथवा विशेषण भाव से, या कि प्रदृष्ट से सम्बन्धपना है ? संयोग से समवाय में संबंधपना होना अशक्य है, क्योंकि संयोग गुणरूप होने से मात्र द्रव्य के आश्रय में रहता है और समवाय अद्रव्यरूप है । समवाय में संबंधपना अन्य समवाय से प्राता है ऐसा द्वितीय विकल्प भी गलत है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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