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________________ समवायपदार्थविचारः ४८१ प्रसिद्धम्, तत्स्वरूपस्याध्यक्षाद्यगोचरत्व प्रतिपादनात् । 'समवायोन्येन संबध्यमानो न स्वतः संबध्यते संबध्यमानात्वाद्रूपादिवत्' इत्यनुमानविरोधाच्च । यदि चाग्निप्रदीपगङ्गोदकादीनामुष्णप्रकाशपवित्रतावत्समवायः स्वपरयोः सम्बन्धहेतुः; तहि तद्दृष्टान्तावष्टम्भेनैव ज्ञानं स्वपरयोः प्रकाश हेतुः किन्न स्यात् ? तथाच "ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं प्रमेयत्वात्" [ ] इति प्लबते। यच्चोच्यते-'समवाय : सम्बन्धान्तरं नापेक्षते, स्वतः सम्बन्धत्वात्, ये तु सम्बन्धान्त रमपेक्षन्ते और संयोगादि में उस सम्बन्ध द्वारा संबंधपना होता हो ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, क्योंकि आपके उस समवाय का स्वरूप प्रत्यक्षादि प्रमाण द्वारा ग्रहण में नहीं आता ऐसा प्रतिपादन कर चुके हैं, तथा समवाय स्वतः संबंधरूप है ऐसा आपका कहना अनुमान से विरुद्ध भी है, समवाय अन्य संबंधी पदार्थ द्वारा संबद्ध होता हुआ स्वतः संबंध को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि यह संबध्यमानरूप है, जैसे रूपादिगुण संबध्यमान स्वरूप होने से स्वतः संबंध को प्राप्त नहीं होते । तथा आप वैशेषिक यदि अग्नि में उष्णता, दीपक में प्रकाश, गंगा जल में पवित्रता स्व और परके लिये हुआ करती है अर्थात्-अग्नि में स्वयं में उष्णता है और परको भी उष्ण करने में निमित्त है स्वतः को उष्ण करना और परको उष्ण करना उसका स्वयं का स्वभाव है, दीपक स्वयं को प्रकाश देता है और परको भी, गंगाजल स्वयं पवित्र है और परको भी पवित्र करता है । इसीप्रकार समवाय स्व और परके सम्बन्ध का कारण है ऐसा कहो तो इसी दृष्टांत के अवलंबन से ज्ञान में स्व पर प्रकाशकपना क्यों न माना जाय ! और इसतरह ज्ञान का स्व परका प्रकाशकपना सिद्ध होने पर आपका सिद्धांत "ज्ञानं ज्ञानान्तर वेद्यं प्रमेयत्वात्" यह खण्डित होता है । अभिप्राय यही है कि वैशेषिक यदि समवाय में सम्बन्धपना स्वतः मानते हैं, समवाय स्व और पर दोनों के सम्बन्ध का कारण है ऐसा इनको इष्ट है तो ज्ञान में भी स्व और परको प्रकाशित करने का स्वभाव है वह भी स्वयं को और परको जानता है ऐसा क्यों न इष्ट किया जाय ? समवाय स्व परके सम्बन्ध का हेतु है तो ज्ञान भी स्व परके जानने का हेतु है ऐसा समान न्याय होवे फिर ज्ञान स्वयं को नहीं जानता उसको जानने के लिये दूसरे ज्ञान की आवश्यकता है इत्यादि कथन बाधित होता है। ___ वैशेषिक का आनुमानिक कथन है कि-समवाय अन्य सम्बन्ध की अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि स्वतः ही सम्बन्धस्वरूप है, जो पदार्थ अन्य सम्बन्ध की अपेक्षा रखते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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