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________________ : प्रमेयकमलमार्तण्डे किश्व, असो सतां सत्तासमवायः, प्रसतां वा स्यात् ? न तावदसताम्; व्योमोत्पलादीनामपि तत्प्रसङ्गात् । श्रथात्यन्तासत्त्वात्तेषां न तत्प्रसङ्गः; गुणगुण्यादीनामत्यन्तासत्वाभाव: कुत: ? समवायाच्चेत्; इतरेतराश्रयः - सिद्धे हि समवाये तेषामत्यन्तासत्त्वाभावः; तदभावाच्च समवायः । नापि सताम् ; समवायात्पूर्वं हि सत्त्वं तेषां समवायान्तरात् स्वतो वा ? समवायान्तराच्चेत्; न श्रस्यैकत्वाभ्युपगमात् । अनेकत्वेपि प्रतोपि पूर्व ( ) समवायन्तरात्तेषा सत्त्वमित्यनवस्था । स्वतः सत्त्वाभ्युपगमे ४७८ को विनाश रहित नहीं माना, सभी वादी प्रतिवादी कार्य को विनाशयुक्त मानते हैं, अतः स्वकारणसत्ता समवाय होना ही वस्तु का श्रात्म लाभ है ऐसा कहना शक्य है । दूसरी बात यह है कि यह सत्ता समवाय असत् वस्तुनों में होता है या सत् वस्तुत्रों में होता है ? असत् के तो हो नहीं सकता क्योंकि असत् में सत्ता समवाय हो सकता है तो आकाश पुष्प खरगोश के सींग आदि में भी सत्ता समवाय हो सकता है । वैशेषिक - प्रकाश पुष्पादि में सत्ता का समवाय मानने का प्रसंग नहीं आयेगा, क्योंकि वे प्रत्यन्त असत् हैं । जैन - गुण - गुणी आदि पदार्थ अत्यन्त असत् क्यों नहीं, उनमें प्रत्यन्त प्रसत्व का प्रभाव किस कारण से माना जाय । वैशेषिक – गुण गुणी आदि में समवाय रहता है, अतः उनका प्रत्यन्त ग्रसत्व नहीं होता । जैन - इसतरह कहो तो इतरेतराश्रय दोष होगा पहले समवाय सिद्ध होवे तो उन गुण - गुणी आदि का प्रत्यन्त असत्व का प्रभाव सिद्ध होवे, और इस प्रभाव के सिद्ध होने पर उससे समवाय सिद्ध होवे, अर्थात् गुण गुणी का अत्यन्त असत्व क्यों नहीं तो उनमें समवाय है इसलिये नहीं, श्रौर गुण गुणी में समवाय संबंध क्यों होता है तो उनका प्रत्यन्त असत्व नहीं होने से होता है, इसप्रकार का परस्पराश्रित कथन अन्योन्याश्रय दोष युक्त होता है । सत् वस्तुओं में सत्ता का समवाय संबंध होता है ऐसा द्वितीय विकल्प भी ठीक नहीं, आगे इसी विषय को कहते हैं- सत् वस्तु में सत्ता का समवाय होता है तो समवाय होने के पहले उसमें सत् अन्य समवाय से प्राया कि स्वतः आया ? अन्य समवाय से शक्य नहीं क्योंकि आपने समवाय नामा पदार्थ एक ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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