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समवायपदार्थविचारः
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तु समवायपरिकल्पनानर्थक्यम् । ननु न समवायात् पूर्व तेषां सत्त्वमसत्त्वं वा, सत्तासमवायात्सत्त्वाभ्युपगमात् ; इत्यप्यसङ्गतम् ; परस्परव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधस्यापरविधाननान्तरीयकत्वेनोभयनिषेधविरोधात् । न चानुपकारिणोः सत्तासमवाययोः परस्परसम्बन्धो युक्तोतिप्रसङ्गात् ।
अव्यापि चेदं सत्त्वलक्षणम् सत्तासमवायान्त्यविशेषेषु तस्या संभवात् । "त्रिषु पदार्थेषु सत्करी सत्ता" [ ] इत्यभिधानात् । प्रतिव्यापि चाकाशकुशेशयादिष्वपि भावात् । न च तेषाम
माना है, यदि यहां पर उसे अनेकरूप मानो तो अनवस्था दूषण प्राप्त होगा, क्योंकि विवक्षित समवाय के पहले उस वस्तु का सत्व किससे हुया अन्य समवाय से हया तो पुनः वह अन्य समवाय भी सत् वस्तु में हुआ कि प्रसत् वस्तु में ? सत् में हुआ तो वह सत् किसी अन्य तीसरे समवाय से होगा, इत्यादिरूप से अनवस्था पाती है। तथा यदि समवाय के पहले वस्तुओं में सत् स्वतः ही था ऐसा दूसरा विकल्प स्वीकार किया जाय तो समवाय नामा पदार्थ की कल्पना करना व्यर्थ ही ठहरता है ।
वैशेषिक-समवाय के पहले वस्तुओं में न सत्व था और न असत्व ही था, जब सत्ता का समवाय हुआ तब उनमें सत्व पाया ऐसा हमने स्वीकार किया है।
जैन-यह असंगत है जिन दो धर्मों का परस्पर में व्यवच्छेद है उन दो धर्मों में से एक का निषेध करने पर अन्य की विधि होने का नियम है अतः सत्व और असत्व दोनों का एक में एक साथ निषेध करना विरुद्ध है । स्वकारण सत्ता का समवाय होना स्वरूप निष्पत्ति है इत्यादि आपने कहा वह अयुक्त है, क्योंकि सत्ता और समवाय ये दोनों परस्पर में अनुपकारि हैं-अतः इनका आपसमें सम्बन्ध युक्त नहीं, अन्यथा अति प्रसंग होगा।
सत्ता का समवाय होने के पूर्व पदार्थों का न सत्व है और न असत्व है इत्यादि सत्व का लक्षण अव्यापि है क्योंकि यह लक्षण सत्ता में, समवाय में और अन्त्य विशेष में नहीं पाया जाता, आपने इनको स्वरूप से हो सत्वरूप माना है । “त्रिषुपदार्थेषु सत्करी सत्ता" द्रव्य, गुण, कर्म इन तीन पदार्थों में सत्ता के समवाय से सत्व होता है । अर्थात् सत्ता, समवाय और अन्त्य विशेषों में स्वतः सत्व है और द्रव्य, गुण तथा कर्म में सत्ता समवाय से सत्व है ऐसी आपकी मान्यता है अतः सत्ता समवाय के पूर्व सब पदार्थों में न सत्व है न असत्व है ऐसा कहना अव्यापि है। तथा यह सत्व का लक्षण
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