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________________ समवायपदार्थविचारः ४७७ विशेष्यज्ञानमुत्पद्यते तद्विशेषणम्, किं वा यस्यानुरागः प्रतिभासते तदिति ? प्रथमपक्षे चक्षुरालोकादेरपि तदनिवार्यम् । अथ यस्यानुरागस्तद्विशेषणम् ; न तहि 'दण्डी' इति प्रत्यये दण्डवद्दण्डशब्दोल्लेखेन 'समवायः' इति प्रत्ययेप्यदृष्टस्य तच्छब्दयोजनाद्वारेणानुरागं जनो मन्यते । तथाप्यदृष्टस्य विशेषणत्वकल्पनायाम् ‘दण्डी' इत्यादिप्रत्ययेप्यस्यैव तत्कल्पनास्तु किं द्रव्यादेविशेषणभावकल्पनया ? यच्चोक्तम्-स्वकारणसत्तासंबन्ध एवात्मलाभ इत्यादि ; तन्न; प्रात्मलाभस्य स्वकारणसत्तासमवायपर्यायतायां नित्यत्वप्रसङ्गात्, तन्नित्यत्वे च कार्यस्याविनाशित्वं स्यात् । जैन-इसतरह नहीं कह सकते, जिसके होने पर विशेष्य का ज्ञान उत्पन्न होता है उसको विशेषण कहते हैं, अथवा विशेष्य में जिसका अनुराग [संबंध] प्रतीत होता है उसे विशेषण कहते हैं ? प्रथम पक्ष कहो तो नेत्र, प्रकाशादि को भी विशेषणपना आयेगा। क्योंकि नेत्रादि के मौजूदगी से भी “यह विशेष्य है" ऐसा विशेष्य का ज्ञान होता है । जिसका अनुराग [संबंध] प्रतीत होता है वह विशेषण है, ऐसा द्वितीय पक्ष भी ठीक नहीं, कैसे सो ही बताते हैं-जिसप्रकार "दण्डावाला है" इस ज्ञान में दंड शब्द द्वारा उस दण्डवाले पुरुष का दण्ड के साथ होने वाले संबंध को सभी लोग मानते हैं, [ अर्थात् देवदत्त दंडवाला है ऐसा दण्ड शब्द द्वारा उल्लेख करते हैं ] उसप्रकार “समवाय है" इस प्रत्यय में अदृष्ट का “यह अदृष्ट युक्त है अथवा अदृष्ट विशेषण है" इत्यादि शब्द द्वारा उल्लेख करके उसके संबंध को नहीं जानते हैं अतः समवाय का विशेषरण अदृष्ट है ऐसा कहना सिद्ध नहीं होता। इसप्रकार अदृष्ट समवाय का विशेषण नहीं होने पर भी उसमें विशेषणत्व की कल्पना करेंगे तो “दण्डो है" इत्यादि प्रत्यय में भी इसो अदृष्ट को विशेषण मानना होगा । दण्डा आदि पदार्थों में विशेषण भाव की कल्पना से क्या प्रयोजन ? अभिप्राय यही हुआ कि अदृष्ट को समवाय का विशेषण बताना कथमपि सिद्ध नहीं होता । स्वकारण सत्ता का संबंध होना ही वस्तु का पात्म लाभ या स्वरूप निष्पत्ति है इत्यादि पहले वैशेषिक ने प्रतिपादन किया था वह ठीक नहीं, क्योंकि वस्तु के स्वरूप निष्पत्ति को यदि स्वकारण सत्ता समवाय के पर्यायरूप मानेंगे तो वह नित्य बन जायगा, क्योंकि सत्ता और समवाय दोनों ही नित्य हैं । और यदि वस्तु की स्वरूपनिष्पत्ति नित्य हुई तो कार्य को अविनाशी मानना होगा। किन्तु किसी भी वादी प्रतिवादी ने कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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