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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रसंगः । तत्रापि हि प्रतिभासभेदान्नान्यो भेदव्यवस्थाहेतुः । स च सामान्यविशेषयोरप्यस्ति । सामान्यप्रतिभासो ह्यनुगताकारः, विशेषप्रतिभासस्तु व्यावृत्ताकारोऽनुभूयते ।।
दूरादूर्ध्वतासामान्यमेव च प्रतिभासते न स्थाणुपुरुषविशेषौ तत्र सन्देहात् । तत्परिहारेण प्रतिभासनमेव च सामान्यस्य ततो व्यतिरेकस्तल्लक्षणत्वाभेदस्य।
यदप्युक्तम्
शंका जाति और व्यक्ति अर्थात् सामान्य और विशेष ये दोनों ही एक ही इन्द्रिय द्वारा जानने योग्य होते हैं [ रूप और रस तो ऐसे एक ही इन्द्रिय गम्य नहीं होते ] अतः सामान्य और विशेष में भेद नहीं मानते हैं ?
...... समाधान-इस तरह एक इन्द्रिय द्वारा गम्य होने मात्र से सामान्य और विशेष को एक रूप माना जाय तो वायु और पातप को भी एक रूप मानना पड़ेगा ? क्योंकि ये दोनों भी एक ही स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा गम्य होते हैं ? वायु और आतप में भी प्रतिभास के विभिन्नता के कारण ही भेद सिद्ध होता है अर्थात् शीत स्पर्श के प्रतिभास से वायु और उष्ण स्पर्श के प्रतिभास से आतप की सिद्धि होती है अन्य किसी से तो इनमें भेद व्यवस्था नहीं होती है, इस प्रकार की प्रतिभास भेद या बुद्धि भेद की व्यवस्था तो सामान्य और विशेष में भी पायी जाती है, देखो ! सामान्य का प्रतिभास यह गो है यह गो है इत्यादि अनुगताकार है, और विशेष का प्रतिभास यह इससे भिन्न है, श्याम वर्ण गो, शबल नहीं है इत्यादि व्यावृत्ताकार अनुभव में आता है।
__ सामान्य किस प्रकार प्रमाण से सिद्ध होता है इसमें और भी उदाहरण देखिये-दूर से वस्तु का सामान्य ही धर्म प्रतीत होता है, जैसे कि पुरुष अथवा ठट दर प्रदेश में स्थित है तो देखने वाले को सबसे पहले दोनों में पाया जाने वाला ऊंचाई नामा जो सामान्य धर्म है वही प्रतीत है ठूट या पुरुष विशेष तो प्रतीत होता नहीं, क्योंकि उस विशेष में संशय बना रहता है कि यह दिखाई देने वाला ऊंचा पदार्थ स्थाणु है अथवा पुरुष है ? यहां विशेष का परिहार करके अकेला सामान्य ही प्रतीत होता है इसलिये विशेष से पृथक् लक्षण वाला सामान्य है यह अपने आप सिद्ध होता है, क्योंकि लक्षण के निमित्त से ही तो स्वभाव या धर्मों में भेद माना जाता है।
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