________________
सामान्यस्वरूपविचार:
भासन्त्यबाधितरूपा बुद्धिः अनुभूयमानानुगताकारं वस्तुभूतं सामान्य व्यवस्थापयति ।
ननु विशेषव्यतिरेकेण नापरं सामान्यं बुद्धिभेदाभावात् । न च बुद्धिभेदमन्तरेण पदार्थभेदव्यवस्थाऽतिप्रसङ्गात् । तदुक्तम् -
"न भेदाद्भिन्नमस्त्यन्यत्सामान्यं बुद्धयभेदतः । बुद्धयाकारस्य भेदेन पदार्थस्य विभिन्नता ।।"
] इति; तदप्यपेशलम् ; सामान्यविशेषयोर्बुद्धिभेदस्य प्रतीति सिद्धत्वात् । रूपरसादेस्तुल्यकालस्याभिन्नाश्रयवर्तिनोप्यत एव भेदप्रसिद्धः । एकेन्द्रियाध्यवसेयत्वाज्जातिव्यक्त्योरभेदे वातातपादावप्यभेद
और अनुगताकार का अवभास जिसमें हो रहा है ऐसी अबाधित प्रतीति या बुद्धि अपने अनुभव में आ रहे अनुगत आकार का [ समान धर्म-यह गो है, यह गो हैं इत्यादि] वास्तविक निमित्त जो सामान्य है उसकी व्यवस्था करती है-अर्थात् अनुवृत्त प्रत्यय से सामान्य की सिद्धि होती ही है।
शंका-विशेष को छोड़कर पृथक् कोई सामान्य दिखायी नहीं देता है, क्योंकि बुद्धि या ज्ञान में तो कोई भेद उपलब्ध नहीं होता है कि यह सामान्य है और यह विशेष है । अर्थात् प्रतिभास में भिन्नता नहीं होने से सामान्य को नहीं मानना चाहिये । बुद्धि में भेद अर्थात् पृथक् पृथक् प्रतिभास हुए बिना ही पदार्थों के भेदों की व्यवस्था करने लग जायेंगे तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त होगा। कहा भी है कि-विशेष से पृथक कोई भी सामान्य नामक स्वतन्त्र पदार्थ देखा नहीं जाता, क्योंकि सामान्य पृथक् होता तो बुद्धि में अभेद नहीं रहता, अर्थात् विशेष का प्रतिभास भिन्न होता और सामान्य का भिन्न, किन्तु ऐसा नहीं होता है । बुद्धि के आकार के भेद से ही [झलक की विभिन्नता ही] पदार्थ का भेद सिद्ध होता है ।।१।।
समाधान- यह कथन असुन्दर है, सामान्य और विशेष में बुद्धि का भेद तो प्रतीति सिद्ध है, इसी विषय का खुलासा करते हैं- रूप, रस इत्यादि गुण धर्म एक ही काल में एक ही आश्रयभूत आम्र आदि पदार्थ में रहते हुए भी बुद्धि भेद के कारण ही भिन्न भिन्न सिद्ध होते हैं, अर्थात् एक पदार्थ में एक साथ रहकर बुद्धि, प्रमाण, या ज्ञान उन रूप, रस आदि का पृथक् पृथक् प्रतिभास कराता है और इस पृथक् प्रतिभास के कारण ही रूप, रसादि की पृथक् पृथक् गुण रूप व्यवस्था हुआ करती है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org