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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे ननु खण्डमुण्डादिव्यक्तिव्यतिरेकेणापरस्य भवत्कल्पितसामान्यस्याप्रतीतितो गगनाम्भोरुहवदसत्त्वादसाम्प्रतमेवेदं तल्लक्षणप्रणयनम् ; इत्यप्यसमीचीनम् ; 'गौ!:' इत्याद्यबाधितप्रत्ययविषयस्य सामान्यस्याऽभावासिद्धेः। तथाविधस्याप्यस्यासत्त्वे विशेषस्याप्यसत्त्वप्रसङ्गः, तथाभूतप्रत्ययत्वव्यतिरेकेणापरस्य तद्वयवस्थानिबन्धनस्यात्राप्यसत्त्वात् । अबाधितप्रत्ययस्य च विषयव्यतिरेकेणापि सदभावाभ्युपगमे ततो व्यवस्थाऽभावप्रसङ्गः । न चानुगताकारत्वं बुद्धेबर्बाध्यते ; सर्वत्र देशादावनुगतप्रतिभासस्याऽस्खलद्र पस्य तथाभूतव्यवहारहेतोरुपलम्भात् । अतो व्यावृत्ताकारानुभवानधिगतमनुगताकारमव सूत्रार्थ-अनेक व्यक्तियों में पाया जाने वाला जो सदृश परिणाम है उसे तिर्यग् सामान्य कहते हैं, जैसे खण्डी मुण्डी आदि गायों में गोत्व-सास्नादि मान पना समान रूप से पाया जाता है, अनेक गायों में रहने वाला जो गोत्व है उसीको तिर्यकसामान्य कहते हैं। सौगत-खण्डी, मण्डी आदि गायों को छोड़कर अन्य पृथक जैन का माना हआ गोत्व सामान्य प्रतीति में नहीं आता है, अतः आकाश पुष्प के समान इस सामान्य का अभाव ही है, इसलिये जैनाचार्य यह जो सामान्य का लक्षण बता रहे हैं वह व्यर्थ है ? जैन--यह कथन अयुक्त है, यह गो है, यह गो है, इस प्रकार सभी गो व्यक्तियों में सामान्य का जो बोध हो रहा है वह निर्बाध है अतः आप बौद्ध सामान्य धर्म का प्रभाव नहीं कर सकते हैं। अबाधितपने से सामान्य प्रतिभासित होने पर उसको नहीं माना जाय, उसका जबरदस्ती अभाव किया जाय तो फिर विशेष का भी अभाव मानना पड़ेगा ? क्योंकि अबाधित प्रत्यय को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा प्रमाण नहीं है कि जो विशेष को सिद्ध कर देवे ! अर्थात् विशेष भी अबाधित प्रतीति से ही सिद्ध होता है, सामान्य और विशेष दोनों की व्यवस्था निर्बाध प्रमाण पर हो निर्भर है। बाधा रहित ऐसा जो प्रमाण है उसके विषय हुए बिना ही यदि विशेष या किसी तत्व का सद्भाव स्वीकार किया जायगा तो फिर अबाधित ज्ञान से किसी भी वस्तु को व्यवस्था नहीं हो सकेगी । अनुगत आकार अर्थात् यह गौ है यह गौ है इत्यादि आकार रूप प्रतीति आती है वह किसी तरह बाधित भी नहीं होती है, सब जगह हमेशा ही अनुगताकार प्रतिभास अस्खलितपने से उस प्रकार के व्यवहार का निमित्त होता हुआ देखा गया है इसलिये यह निश्चय होता है कि व्यावृत्ताकार का अनुभव जिसमें नहीं है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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