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सामान्यस्वरूपविचारः "ताभ्यां तद्वयतिरेकश्च किन्नाऽदूरेऽवभासनम् । दूरेऽवभासमानस्य सन्निधानेऽतिभासनम् ॥"
[प्रमाणवात्तिकालं० ] तदप्यसुन्दरम् ; विशेषेपि समानत्वात्, सोपि हि यदि सामान्याव्यतिरिक्तः; तहि दूरे वस्तुनः स्वरूपे सामान्ये प्रतिभासमाने किन्नावभासते ? न हीन्द्रधनुषि नीले रूपे प्रतिभासमाने पीतादिरूपं दूरान्न प्रतिभासते। अथ निकटदेशसामग्री विशेषप्रतिभासस्य जनिका, दूरदेशत्तिनां च प्रतिपत्तृणां सा नास्तीति न विशेषप्रतिभासः; तर्हि सामान्यप्रतिभासस्य जनिका दूरदेशसामग्री निकटदेशत्तिनां चासौ नास्तीति न निकटे तत्प्रतिभासनमिति समः समाधिः । अस्ति च निकटे
बौद्ध के प्रमाणवात्तिकालंकार नामा ग्रन्थ में कहा है कि जैनादि परवादी सामान्य को एक वास्तविक पदार्थ मानते हैं सो सामान्य के विषय में हम पूछते हैं कि यदि पुरुष और स्थाणु को छोड़कर भिन्न कोई ऊर्ध्वतासामान्य [ ऊंचाई ] है तो वह उन वस्तुओं के निकट आने पर क्यों नहीं प्रतीत होता है ? जो धर्म दूर से ही अवभासित हो सकता है वह निकट आ जाने पर तो अधिक स्पष्ट रूप से अवभासित होना चाहिये १ ॥१॥ [किन्तु ऐसा होता तो नहीं, अतः सामान्य को काल्पनिक मानते हैं। सो यह बौद्ध का मंतव्य असत् है, सामान्य के विषय में जिस प्रकार आपने बखान किया उस प्रकार विशेष के विषय में भी कर सकते हैं, कोई कह सकता है कि विशेष नामा धर्म यदि सामान्य धर्म से व्यतिरिक्त है तो दूर से वस्तु के सामान्य स्वरूप के प्रतिभासित होने पर क्यों नहीं प्रतीत होता है ? विशेष यदि वस्तु में मौजद है तो वह अवश्य ही सामान्य के प्रतीत होने पर प्रतिभासित हो जाता, इन्द्र धनुष में नील वर्ण प्रतीत होने पर क्या पीतादि वर्ण दूर से ही प्रतीत नहीं होते ? अर्थात् होते ही हैं ।
शंका-विशेष धर्म के प्रतिभास को उत्पन्न करने वाली निकट देशादि सामग्री हुआ करती है, वह दूर देशस्थ पुरुषों में नहीं होने से दूर प्रदेश से विशेष का प्रतिभास नहीं होता है ?
समाधान-तो फिर सामान्य धर्म के प्रतिभास को उत्पन्न करने वाली सामग्री दूर देशता है और वह निकट देशवर्ती पुरुषों में नहीं होने से निकट देश से सामान्य का प्रतिभास नहीं होता है ऐसा स्वीकार करना चाहिये ? सामान्य और विशेष के बारे में शंका समाधान समान ही रहेंगे। दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार विशेष
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