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प्रमेयकमलमार्तण्डे रुष्णतावत्तु स्वत एवास्य सम्बन्धो युक्तः स्वत एव सम्बन्धरूपत्वात्, न संयोगादीनां तदभावात् । न ह्य कस्य स्वभावोऽन्यस्यापि, अन्यथा स्वतोग्नेरुष्णत्वदर्शनाज्जलादीनामपि तस्यात् ।
यच्चोक्तम्-'निष्क्रियत्वात्तेषां नाधेयत्वम्' इति; तदप्यसत्; संयोगिद्रव्यविलक्षणत्वाद्गुणादीनाम्, संयोगिनां सक्रियत्वेनेव तेषां निष्क्रियत्वेप्याधाराधेयभावस्य प्रत्यक्षेण प्रतीतेश्चेति ।
अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तमयुतसिद्धेत्यादि । तत्रेदमयुतसिद्धत्वं शास्त्रीयम्, लौकिकं वा ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; तन्तुपटादीनां शास्त्रीयायुतसिद्धत्वस्यासम्भवात् । वैशेषिकशास्त्रे हि प्रसिद्धम्
यह शंका भी पूर्वोक्त निष्पन्न के होता है या अनिष्पन्न के होता है इत्यादि शंका के समान खण्डित हुई समझना चाहिए ।
समवाय का संबंधी पदार्थों के साथ जो संबंध होता है वह अन्य संबंध द्वारा नहीं होता जिससे कि अनवस्था हो जाय, क्योंकि संबंध का अपने समान अन्य संबंध द्वारा संबंध होता हुआ अन्यत्र देखा नहीं गया है । संयोग के समान, अर्थात् संयोगी दो पदार्थों में संयोग का संबंध समवाय से होता है, किन्तु समवाय में किसी अन्य संबंध से समवायी के साथ संबंध नहीं होता, वह स्वयं सम्बद्ध होता है । समवाय संबंध तो अग्नि की उष्णता के समान स्वतः ही है । संयोगादिका इसतरह स्वतः संबंध नहीं होता, जो एक वस्तु का स्वभाव होता है वह अन्य वस्तु का भी हो ऐसा नहीं है, यदि एक का स्वभाव अन्य में अवश्य होता है तो अग्नि का स्वभाव स्वतः उष्ण रहना है अतः जलादिक भी स्वतः उष्ण स्वभाव युक्त हैं ऐसा मानना होगा।
गुणादि पदार्थ निष्क्रिय होने से प्राधेय नहीं हो सकते ऐसा जैन ने कहा वह असत् है, क्योंकि संयोगी द्रव्यों से विलक्षण ही गुणादि पदार्थ हना करते हैं, संयोगी द्रव्य सक्रिय होते हैं, उनके सक्रिय होने के कारण गुणादिक निष्क्रिय होते हुए भी आधार-प्राधेयभाव युक्त हो जाते हैं यह गुणादिका प्राधेयादिपना प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है । इसप्रकार समवायनामा पदार्थ सिद्ध होता है।
जैन-अब यहां पर वैशेषिक के समवाय विषयक पूर्व पक्ष का निरसन किया जाता है-सबसे पहले समवाय का लक्षण करते हुए कहा था कि अयुत सिद्ध पदार्थों में समवाय होता है सो अयुतसिद्धपना कौनसा है शास्त्रीय या लौकिक ? प्रथम पक्ष अयुक्त
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