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________________ समवायपदार्थविचारः अपृथगाश्रयवृत्तित्वमयुत सिद्धत्वम् , तच्चेह नास्त्येव, 'तन्तूनां स्वावयवांशुषु वृत्तेः पटस्य च तन्तुषु' इति पृथगाश्रयवृत्तित्वसिद्धरपृथगाश्रयवृत्तित्वमसदेव । एवं गुणकर्मसामान्यानामप्यपृथगाश्रय वृत्तित्वाभावः प्रतिपत्तव्य : । लोकप्रसिद्ध कभाजनवृत्तिरूपं त्वयुतसिद्धत्वम् दुग्धाम्भसोयुतसिद्धयोरप्यस्तीति । ननु यथा कुण्डदध्यवयवाल्यौ पृथग्भूतावाश्रयो तयोश्च कुण्डस्य दध्नश्च वृत्तिर्न तथात्र चत्वारोा : प्रतीयन्ते-द्वावाश्रयो पृथग्भूतौ द्वो चायिणी, तन्तोरेव स्वावयवापेक्षयाश्रयित्वात् पटापेक्षया चाश्रयत्वात्त्रयाणामेवार्थानां प्रसिद्ध :, 'पृथगाश्रयाश्रयित्वं युतसिद्धि :' इत्यस्य युतसिद्धिलक्षण है क्योंकि तन्तु और वस्त्र इत्यादि पदार्थों में शास्त्रीय अयुत सिद्धत्व असंभव है, आप वैशेषिक के शास्त्र में अयुत सिद्धत्व का लक्षण किया है कि अपृथगाश्रय वृत्तित्वं अयुतसिद्धत्वं-अपृथक पाश्रय में रहना प्रयतसिद्धत्व है, सो इसप्रकार का प्रयुतसिद्धपना तंतु और वस्त्र में देखने में नहीं आता है, तन्तुओं का आश्रय अपने अपने अंशु [कार्पास] है और वस्त्र का प्राश्रय तन्तु हैं इसप्रकार इनका पृथक् प्राश्रय सिद्ध होने से अपृथक् आश्रय में रहना अयुत सिद्धत्व है और वह तन्तु आदि में पाया जाता है इत्यादि कहना गलत ठहरता है । जैसे तन्तु और पट में अपृथक् प्राश्रयवृत्ति का अभाव है वैसे ही गुण, कर्म सामान्यों में भी अपृथक् प्राश्रयवृत्ति का अभाव है। लौकिक अयुतसिद्धत्व एक भाजन में रहना इत्यादि स्वरूप है, ऐसा अयुतसिद्धत्व तो युतसिद्धरूप दूध और जल में भी पाया जाता है। वैशेषिक-जिसप्रकार कुण्डा और दही है उसप्रकार तन्तु और वस्त्र नहीं है, कुण्डा और दही इत्यादि पदार्थों के सम्बन्ध में तो चार वस्तुएं होती हैं-कुण्डा और दही ये दो तो पृथक्भुत आश्रय हैं जो कि अवयव स्वरूप हैं, तथा कुण्डे को और दही की वृत्ति ये दो वस्तु हैं, इनमें कुण्डा और दही तो पाश्रय हैं तथा दो आश्रयवान् हैं । इसप्रकार के चार पदार्थ तन्तु और वस्त्र आदि में नहीं हैं यहां तो तन्तु अपने अवयवों की अपेक्षा से प्राश्रयी और पटकी अपेक्षा आश्रयरूप होता है अतः यहां तीन हो वस्तुएं हैं। अतः पृथक् आश्रय और पृथक् आश्रयोपना जिसमें हो वह युतसिद्धत्व है, ऐसा युतसिद्धि का लक्षण उन तन्तु आदि में नहीं पाया जाता अतः उनको अयुतसिद्धरूप मानते हैं ? __ इसप्रकार युतसिद्धि का अर्थ करेंगे तो आकाश, दिशा प्रात्मादि पदार्थों में युतसिद्धत्व किस प्रकार रह सकेगा ? क्योंकि आकाशादि द्रव्य नित्य एवं व्यापक हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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