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________________ गुणपदार्थवादः प्रसङ्गः । क्षणादूवं चार्थस्य स्वयमेवाभावात्कस्यासौ स्थापक: स्यात् ? भावे वाऽस्थिरस्वभावताविरोध : । अथ द्वितीयः पक्षः; तदा स्थिरस्वभावेऽवस्थितानामर्थानां स्वयमेवावस्थानाकिम किंचित्करस्थापकप्रकल्पनया ? तत: स्वहेतुवशात्तथा तथा परिणतिरेवार्थानां स्थितस्थापक: संस्कारो नाग्यः । धर्माधर्मशब्दानां तु गुणत्वं प्रागेव प्रतिविहितमित्यलमतिप्रसङ्गन । तत: "कतु : फलदाय्यास्मगुण प्रात्ममनः संयोगजः स्वकार्यविरोधी धर्माधमरूपतया भेदवानदृष्टाख्यो गुण:" [ ] इत्ययुक्तमुक्तम् । इदं तु युक्तम् "कर्तु: प्रियहितमोक्षहेतुर्धर्म :, अधर्मस्त्वप्रियप्रत्ययहेतुः' [ प्रश० भा० पृ० २७२-२८० ] इति । तन्न गुणपदार्थोपि श्रेयान् । स्वभाव वाले को स्थापित करना तो अशक्य है, क्योंकि वह अस्थिर स्वभावी पदार्थ अपने स्वभाव का उल्लंघन नहीं कर सकता। यदि अस्थिर स्वभावी वस्तु को भी स्थित स्थापक संस्कार स्थापित करता है तो अतिप्रसंग प्राप्त होगा, फिर तो विद्युत आदि चंचल पदार्थ को भी वह स्थापित कर देगा। तथा अस्थिर स्वभावी पदार्थ एक क्षण के आगे स्वयमेव नष्ट हो जाता है अतः यह संस्कार किसका स्थापक होगा ? यदि एक क्षण के बाद वह स्वयं नष्ट नहीं होता है तब उसे अस्थिर स्वभाव वाला नहीं कह सकते हैं। दूसरा पक्ष-स्थिर स्वभावी पदार्थ को स्थित स्थापक संस्कार स्थापित कर देता है ऐसा कहो तो यह व्यर्थ है, जब पदार्थ स्वयं स्थिर स्वभाव में अवस्थित हैं तब अकिंचित्कर स्थित स्थापक संस्कार की कल्पना से क्या प्रयोजन है। अतः पदार्थ अपने कारण द्वारा स्वयं उस उसप्रकार से परिणत हैं, यही स्थित स्थापक नामा संस्कार है अन्य कुछ भी नहीं है ऐसा सिद्ध होता है । धर्म, अधर्म और शब्द इन तीनों को गुण रूप मानना पहले ही निराकृत हो चुका है, अब यहां अधिक कथन से बस हो । वैशेषिक के यहां कहा है कि-जो कर्ता को फल देता है, आत्मा का गुण है, आत्मा और मनके संयोग से उत्पन्न होता है, स्वकार्य का विरोधी है, धर्म-अधर्मरूप भेदवाला है ऐसे विशेषणों वाला अदृष्ट नामा गुण है, सो यह धर्मादि के गुणत्व का निषेध करने से ही खण्डित हुआ माना जायगा। हां अदृष्ट या धर्माधर्म के विषय में प्रशस्तपाद भाष्य में कुछ ठीक कहा है कि-जो कर्ता को प्रिय, हितकर हो एवं मोक्ष का कारण हो वह धर्म है, और जो अप्रिय हो अहितकारी है, वह अधर्म है, इत्यादि । इसप्रकार वैशेषिक द्वारा मान्य चौवीस प्रकार के गण सिद्ध नहीं होते हैं । अतः गुण पदार्थ को पृथक्प मानना श्रेयस्कर नहीं है। ।। गुणपदार्थविचार समाप्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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