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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे कस्वभावत्वेनावस्थितस्य प्रागिव पश्चादपि प्रक्षयानुपपत्त: । न चाकाशस्य प्रदेशाः परेणेष्यन्ते, येन तत्संयोगाना भूयस्त्वं संस्कारप्रक्षयहेतुत्वं वा युक्तियुक्त भवेत् । कल्पनाशिल्पिकल्पितानां संयोगभेदकत्वं तदायत्तभेदानां च संयोगानां संस्कारप्रक्षयहेतुत्वं दूरोत्सारितमेव । भावनाख्यस्तु संस्कारो धारणापरनामा नानिष्टः; पूर्वपूर्वानुभवाहितसामर्थ्यलक्षणस्यात्मनोऽनर्थान्तरभूतस्य स्मृत्यादिहेतुत्वेनास्यास्माभिरपीष्टत्वात् । स्थितस्थापकरूपस्तु संस्कारोऽसम्भाव्य एव । स हि किं स्वयमस्थिरस्वभावं भावं स्थापयति, स्थिरस्वभाव वा ? न तावदस्थिरस्वभावम् ; तत्स्वभावानतिक्रमात् । तथाविधस्यापि स्थापनेऽति प्रायेंगे, अर्थात्-कर्म नामा कारण भी पहले मौजूद था उसमें पीछे अन्यथापन क्यों आया इत्यादि प्रश्न का सही समाधान नहीं मिलता है। बहुत से आकाश प्रदेशों के संयोगों का उत्पाद होता है और उससे संस्कार का क्षय होकर बाण गिर जाता है, ऐसा कहना भी अशक्य है, क्योंकि संस्कार हमेशा एक स्वभावरूप से अवस्थित है [संस्कार एक गुण है और गुण जो होते हैं वे नित्य होते हैं] पहले के समान पोछे भी उसका क्षय हो नहीं सकता । आपने बहुत से आकाश प्रदेश की बात कही किन्तु आपके यहां पर आकाश के प्रदेश नहीं माने, अतः आकाश प्रदेशों के संयोगों को बहुलता होना या संस्कार के क्षय होने में कारण होना युक्ति युक्त नहीं है । आकाश द्रव्य में काल्पनिक प्रदेश मानकर उनसे संयोग में नानापना स्वीकार करे तथा प्रदेश भेदों के निमित्त से हुए संयोगों को संस्कार के [ वेग का ] नाश का कारण माने तो वह भी असत्य है, क्योंकि काल्पनिक वस्तु अर्थ क्रियाकारी नहीं होती अतः इस तरह का कथन दूरसे खण्डित हुया समझना चाहिये । संस्कार का भावना नामा भेद तो हमारे धारणा नामा ज्ञान सदृश होने से अनिष्ट नहीं है, भावना अर्थात् धारणा तो पूर्व पूर्व के अनुभव के निमित्त से उत्पन्न हुई सामर्थ्य से युक्त पात्मा से अभिन्न है ऐसा संस्कार हम जैन ने भी माना है जो कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि ज्ञानों का हेतु हुआ करता है। संस्कार का तीसरा भेद स्थित स्थापक है वह तो असम्भव है, इस संस्कार के विषय में विचार करे कि-स्थित स्थापक संस्कार स्वयं अस्थिर स्वभाव वाले पदार्थ को स्थापित करता है या स्थिर स्वभाव वाले पदार्थ को स्थापित करता है ? अस्थिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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